हर बार सब कुछ ठीक करने की बातें की गईं। लेकिन, स्थितियां नहीं बदलीं। 2022 में भारतीय दवा कंपनियों की ओर से बनाई गई कफ सीरप से गांबिया और फिर उज्बेकिस्तान में कई बच्चों की मौत हुई। इन मौतों का संज्ञान विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी लिया। इन मामलों के कारण भारत की दवा कंपनियों की बदनामी भी हुई। माना जा रहा था कि इस बदनामी के कारण विषाक्त कफ सीरप बनाने वाली कंपनियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई होगी और दवाओं की गुणवत्ता का परीक्षण करने वाली सरकारी एजेंसियां अपना काम सही तरह से करेंगी, पर नतीजा ढाक के तीन पात वाला रहा। दवाओं के निर्माण की प्रक्रिया और उनकी गुणवत्ता की परख करने वाली सरकारी एजेंसियां और सरकारें कुछ भी दावा करें, यह काम सही तरह नहीं होता और इसका प्रमाण यह है कि आए दिन दवाओं के सैंपल फेल होने की खबरें आती हैं। पिछले महीने खबर आई थी कि केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन और राज्य दवा नियामकों की जांच में हिमाचल प्रदेश की दवा कंपनियों की 94 दवाओं के सैंपल फेल हुए। जांच में तीन दवाएं नकली भी निकलीं। ड्रग अलर्ट के अनुसार हिमाचल की 31 दवा कंपनियों की 38 दवाएं गुणवत्ता के पैमाने पर खरी नहीं उतरीं। इसी ड्रग अलर्ट के अनुसार उत्तराखंड, पंजाब और मध्य प्रदेश की दवा कंपनियों में बनीं 56 दवाओं के सैंपल भी फेल हुए। जुलाई के ड्रग अलर्ट के अनुसार कुल 143 दवा नमूने फेल पाए गए। जून के ड्रग अलर्ट में कुल 188 दवाओं के सैंपल फेल हुए। इनमें हिमाचल, गोवा और महाराष्ट्र की दवा कंपनियों की दवाएं थीं। क्या हम केवल दवाओं की गुणवत्ता ही बनाए रख पाने में नाकाम हैं? नहीं। दवाओं के साथ-साथ खाद्य सामग्री और पेय पदार्थों की गुणवत्ता के मामले में भी हमारी स्थिति दयनीय है। डिब्बाबंद खाद्य और पेय पदार्थों की गुणवत्ता भी संदेह के घेरे में रहती है। उनके निर्माण में मानकों का उल्लंघन होता ही रहता है। कई बार तो उनमें विषाक्त अखाद्य वस्तुओं की भी मिलावट की जाती है। लेकिन, मुश्किल से ही कोई मिलावटखोर दंडित होता है। जिस तरह दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने वाली सरकारी एजेंसियां और ड्रग इंस्पेक्टर अपना काम ले-देकर करते हैं, उसी तरह खाद्य और पेय पदार्थों की गुणवत्ता की परख करने वाली सरकारी एजेंसियां और फूड इंस्पेक्टर भी। सरकारी तंत्र में व्याप्त इस भ्रष्टाचार का ही यह नतीजा है कि भारत में न तो दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित है और न ही खाद्य और पेय पदार्थों की। दूध, खोया, मिठाई, मसालों आदि में तो मिलावट की आशंका बनी ही रहती है और अक्सर यह सही पाई जाती है। दवाएं हों, खाद्य और पेय पदार्थ अथवा फिर अखाद्य वस्तुएं, अपने देश में सबके निर्माण के लिए मानक बने हुए हैं और सबकी गुणवत्ता परीक्षण के नियम-कानून हैं। लेकिन, उनका सही तरह पालन नहीं होता। जहां निर्माण, वहां भ्रष्टाचार होना एक अलिखित नियम सा बन गया है। इसी तरह जहां कहीं भी सरकारी अनुमति, संस्तुति, परीक्षण आदि की आवश्यकता होती है, वहां भी मानकों की अनदेखी के साथ नियम-कानूनों का उल्लंघन होता है। हैरानी नहीं कि बहुत कम भारतीय उत्पाद ऐसे हैं, जो अपनी गुणवत्ता के लिए जाने जाते हैं। चूंकि हमारे उत्पाद विश्वस्तरीय नहीं बन पा रहे हैं, इसलिए वह विश्व बाजार में अपनी छाप भी नहीं छोड़ पा रहे हैं। इसी कारण हम आत्मनिर्भर बनने के अपने सपने को साकार नहीं कर पा रहे हैं। स्वदेशी के सहारे स्वावलंबी बनने की यात्रा तब पूरी होगी, जब हमारे हर तरह के उत्पाद भरोसेमंद होंगे। अच्छा हो कि हमारे नीति-नियंता यह समझें कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगने का थोथा दावा आत्मनिर्भरता की राह की आत्मघाती बाधा है।