राज्यपशु ऊँट का वैज्ञानिक ढग़ से प्रबंधन
(सभी तस्वीरें- हलधर)दूध में इन्सुलिन/इन्सुलिन की भांति प्रोटीन पाई जाती है जो मधुमेह रोगियों के लिए बहुत ही लाभदायक है। ऊंटनी दूध को विभिन्न प्रकार के क्षय रोगियों में भी उपयोगी पाया गया है। राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केन्द्र, बीकानेर ने ऊंटनी के दूध से कई प्रकार के उत्पाद तैयार किए हैं, जिनमें विभिन्न स्वादयुक्त कुल्फी, सुगन्धित दूध, किण्वित दूध, पनीर, बर्फी, गुलाब जामुन, चॉकलेट, चाय और कॉफी शामिल है। ऊंटनी दूध से निर्मित अमूल चॉकलेट भी स्थानीय बाजारों में उपलब्ध हैं। लेकिन, ऊंट बिक्री पर प्रतिबंध के चलते ऊंटपालन का कार्य इसके पालकों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करने लगा है। ऊंट के वैज्ञानिक प्रबंधन को लेकर हलधर टाइम्स की डॉ. रामकुमार सारण से हुई वार्ता के मुख्यांश...
डॉ. राम कुमार सारण मूलत: गांव शुभलाइ (लूणकरणसर) बीकानेर जिले के रहने वाले हैं। वर्तमान में पशु अनुसंधान केंद्र डग झालावाड़ में टीचिंग एसोसिएट के रूप में अपनी सेवाएं दें रहे है। इन्होंने राजुवास के संघटक कॉलेज बीकानेर से पशु अनुवांशिकी और प्रजनन में स्नातकोत्तर की उपाधि ली है। इनके रिसर्च पेपर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हो चुके है।
ऊंटनी दुग्ध स्वास्थ्यवद्र्धक कैसे है?
ऊंटनी दूध से प्राप्त लैक्टोफेरिन, इम्यूनोग्लोबुलिन, लाइसोजाईम, विटामिन बी, विटामिन सी जैसे तत्वों का अध्ययन उनके औषधीय गुणों के लिए किया गया है। ऊंटनी के दूध में विटामिन 'एÓ, 'बीÓ और विटामिन 'ईÓ की मात्रा क्रमश: 10.1-30. 0 माइक्रोग्राम प्रतिशत, 13.2-26.0 माइक्रोग्राम प्रतिशत और 19.9-45.5 माइक्रोग्राम प्रतिशत तक पाई जाती है। विटामिन 'सीÓ की मात्रा 4.84-5.26 मिलीग्राम प्रतिशत तक होती है। ऊंटनी के दूध में नियासिन और विटामिन-ई की मात्रा गाय के दूध से काफी अधिक पाई जाती है। विटामिन-ई एक एंटी-ऑक्सीडेंट है, जो हमारे शरीर की मूलभूत जरूरतों को पूरा करता है। त्वचा से जड़ी अनेक बीमारियों के इलाज में भी विटामिन-ई काफी मददगार होता है। त्वचा कैंसर में भी विटामिन-ई फायदेमंद बताया गया है। ऊंटनी दूध अल्फा-हाइड्रोक्सी अम्ल का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत है, जिसे त्वचा विकारों और त्वचा गुणवता के समग्र सुधार के लिए उपयोग में लाया जाता है। ऊंटनी दूध में लोहा, जस्ता और तांबा की मात्रा 0.88-1. 12 मिलीग्राम प्रतिशत, 1.19-2.02 मिलीग्राम प्रतिशत ओर 0.40-0.48 मिलीग्राम प्रतिशत के लगभग पाई जाती है, जो गाय के दूध की तुलना में काफी अधिक है।
ऊंट के लिए आवास-आहार व्यवस्था कैसी हो?
एक ऊंट के लिए 2.5 मीटर से 5.5 मीटर का खुला स्थान, आवास हेतु पर्याप्त होता है। ऊंट प्रतिदिन अधिक से अधिक अपनी शारीरिक भार का 1.5 से 2 प्रतिशत चारा ग्रहण करता है। ऊंट के आहार को तीन वर्गों में बांटा जाता है। पहला: हरी घास, खरपतवार, झाडिय़ों, पेड़ों व शाक के पते-जैसे गोखरू, तुम्बा (इन्द्रायन), खीम्प, बूई, फोग, केर पाला, बेर, खेजड़ा, खेजड़ी, बबूल, खेरी, कुम्हटा, सीरीस, नीम आदि। दूसरा : शुष्क चारा इसमें चारे को सूखाकर भण्डारण किया जाता है। इसमें मुख्यतया ज्वार, बाजरा, मक्का तारामीरा आदि की तूड़ी व चना, मोठ, मूंग व ग्वार का भूसा। तीसरा: दानें के रूप में आहार बाजरे व जौ का आटा, गुड़, चना, चूरी, मोंठ चूरी, मूंग चूरी, ग्वार, मक्का, गेहूं, तिल की खल व सरसों की खल आदि को दाने के रूप में खिलाया जाता है। ऊंट के आहार में 30-50 ग्राम नमक प्रतिदिन देना चाहिए। गर्भकाल के अंतिम चरणों में दूध देने वाले पशुओं में और अधिक कार्य करने वाले में ऊंटों को लगभग 25 प्रतिशत पोषक तत्व, आहार में अतिरिक्त रूप से उपलब्ध कराये जाने चाहिए।
ऊंट वंशवृद्धि के लिए ध्यान रखने योग्य बातें क्या है?
ऊंटों में प्रजनन की धीमी गति और टोडिय़ों में अधिक मृत्युदर को देखते हुए ऊंटपालन को वैज्ञानिक तरीके से अपनाकर प्रकृति की इस धरोहर को ना सिर्फ बनाये रखे अपितु उनकी संख्या वृद्धि में अपना सक्रिय सहयोग करें। इसके लिये निम्न बातों, उम्र प्रजनन के लिए नर ऊंट की आयु 5-16 वर्ष के बीच और मादा ऊंट की आयु 3 से 15 वर्ष के बीच होनी चाहिए। वीर्य की जांच नए ऊंट के वीर्य की गुणवत्ता की जांच पशु चिकित्सक से अवश्य करायें। पोषण सर्दी में पौष्टिक आहार जैसे गुड़, तिल्ली का तेल 3 किग्रा. प्रतिदिन के हिसाब से और पौष्टिक दाना अथवा दानों का मिश्रण आहार में देना चाहिए। स्ट् के दौरान ऊंट की गर्दन में ग्रन्थि से बार-बार तरल द्रव्य निकलता है और गुल्ला मुंह से बाहर आ जाता है और दांतचनाने जैसी एक विशेष आवाज करता है। ऊंटनी में गाय-बकरी की तरह स्पष्ट ऋ तु चक्र नहीं होता। ऊंटनी नवम्बर से मार्च तक, जब तक ग्याभिन नहीं होती, वह गरमी में रहती है। इसमें फोलिक्यूलर साईकल होती है । नर ऊंट से मिलान के 36 घंटे में डिम्ब का स्खलन हो जाता है। एक नर से, एक प्रजनन काल में 50-60 ऊंटनियों को गर्भित करवाया जा सकता है। एक बार में एक नर 8 से 25 मिली. वीर्य स्खलित करता है। मादा ऊँटों का औसतन गर्भकाल 385 से 390 दिन होता है। सर्दी प्रारम्भ होते ही (नवम्बर में) ऊंटनी को गर्भित कराकर अगले वर्ष दिसम्बर में बच्चा प्राप्त कर सकते हैं। 1.5 से 2 माह बाद पुन: गर्भित कराने से तीन वर्ष में दो बच्चे प्राप्त कर सकते हैं।
ऊंट के स्वास्थ्य प्रबंधन के बारे में बताइएं?
ऊंट को अपच, खुजली और सर्रा रोग ज्यादा प्रभावित करता है। इन रोगों का उपचार घरेलू तरीकों से भी किया जा सकता है। इससे ऊंटपालकों को आर्थिक लाभ भी होगा।
अपच : अधिक समय तक पौष्टिक आहार ना मिलने पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध नहीं होने आहार में अचानक परिवर्तन और आहार देने के तुरन्त बाद ऊंट को काम में लिए जाने के कारण ऊंट में अपच होकर बन्द पड़ जाता है। बंद पडऩे पर ऊंट सुस्त हो जाता है। वह चारा-पानी में रुचि कम लेने लगता है और जुगाली करना बन्द कर देता है। रोग नियंत्रण के लिए ऊंट को पर्याप्त आराम दे। कुचीला पाउडर ,सौंठ पाउडर ,मीठा सोडा, नमक उपरोक्त मिश्रण को 2-3 लीटर पानी में घोलकर दिन में दो बार दो दिन तक पिलावें। परिणाम ना मिलने पर पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें।
खुजली : समूह में रहने वाले ऊंटों में मुख्यतया सर्दी में खुजली होती है। वे ऊंट, जिनकी साफ-सफाई और बालों की कटाई - मालिश नियमित रूप से नहीं की जाती, में खुजली अधिक होती है। यह बीमारी सूक्ष्म बाह्यपरजीवी सोरोप्टिक व सारकॉप्टीक के कारण होती है। मादा परजीवी के ऊंट की चमड़ी में प्रवेश करने से जलन होती है । इसके उपचार के लिए एक हिस्सा गंधक और चार हिस्से तारामीरा अथवा सरसों के तेल को मिलाकर पेस्ट बनाएं। बालों की कटाई के बाद प्रभावित स्थान पर लगायें। इसे सप्ताह में दो या तीन बार दोहरायें।
बिरसा (सर्रा) : ऊंटों की यह प्रमुख बीमारी टैबेनस (घोड़ा मक्खी) के काटने से, ट्रिपेनोसोमा इवानसाई नामक रक्त परजीवी के कारण एक ऊंट से दूसरे ऊंट में फैलती है। प्रभावित ऊंट की आंखे मंद पड़ जाती हैं और सुस्त हो जाता है। गर्भवती ऊंटनी का गर्भपात हो जाता है। रोग के बढऩे पर पेट के नीचे, पिछली टांगों पर एवं आंख के गड्ढे में पानी भर जाता है। इस रोग में क्रमिक बुखार रहता है, खून की कसे पशु कमजोर हो जाता है एवं मृत्यु तक हो जाती है। तिरस रोग के लक्षण दिखने पर खून की जांच करावे और ऊंट को आराम के साथ पौष्टिक आहार देवें। पशु चिकित्सक की सलाह उपचार करावें। प्रभावित क्षेत्रों में प्रत्येक वर्ष अपने ऊंटों में सर्रारोधी टीके लगवा दें।