किसानों की मेहनत से पैदा हुई ईमानदारी, अब प्रमाणन एजेंसियों की चालाकियों के जाल में उलझ कर रह गई है। हाल में एपीडा ने देशभर की 18 जैविक प्रमाणन एजेंसियों पर शिकंजा कसा। जिनमें मार्च 2025 में 12 और सितंबर 2025 में 6 एजेंसियों पर कार्रवाई की गई। इन पर आरोप था कि इन्होंने बिना आवश्यक निरीक्षण और साक्ष्य के किसानों के उत्पादों को ऑर्गेनिक घोषित कर दिया, कई बार तो किसान खुद यह सुनकर चौंक गए कि वे अब यकायक प्रमाणित जैविक उत्पादक हैं। विडंबना यह कि जिन संस्थाओं को किसानों का हितैषी माना गया , जिनमें कुछ राज्य सरकारों द्वारा संचालित थीं। वही अब अनियमितता में लिप्त पाई गईं। मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, तमिलनाडु, तेलंगाना जैसी जगहों पर प्रमाणन एजेंसियों ने कागज़ी जैविकता का खेल खेला और किसानों की मेहनत की कमाई को दांव पर लगा दिया।
ट्रेसनेट नहीं, ट्रेडर्स-नेट असल नाम
एपीडा ने जिस डिजिटल प्रणाली ट्रेसनेट को किसानों की पारदर्शिता के लिए बनाया था। वह अब दलालनुमा व्यापारियों, बिचौलियों का उपकरण बन चुका है। इस प्लेटफ़ॉर्म पर किसान नहीं, बल्कि दलाल और निर्यातक खेलते हैं। किसान वहीं खड़ा रह जाता है जहाँ से उसने शुरुआत की थी। मैंने कई बार कहा है कि ट्रेसनेट दरअसल ट्रेडर्स-नेट है। एक ऐसा नेटवर्क है जहाँ सर्टिफिकेट वही प्राप्त करता है जिसके पास तकनीकी दक्षता और जुगाड़ की क्षमता है, न कि खेत में पसीना बहाने वाला किसान।
बस्तर से उठी आवाज
यह भी स्मरणीय है कि जब देश में ऑर्गेनिक शब्द का उच्चारण भी मुश्किल था, तब बस्तर की धरती पर मां दंतेश्वरी हर्बल समूह ने वह इतिहास रचा जो आज भी भारत के जैविक आंदोलन की नींव है।
25 वर्ष पहले, जब न तो एपीडा के ट्रस-नेट का नाम था, न डिजिटल फॉर्मेट का, तब हमने जर्मनी की प्रतिष्ठित श्वष्टह्रष्टश्वक्रञ्ज संस्था से अंतरराष्ट्रय ऑर्गेनिक प्रमाणन प्राप्त किया था। देश का पहला सर्टिफाइड ऑर्गेनिक हर्बल कृषक गु्रप बनने का गौरव बस्तर ने ही पाया।
हमने जड़ी-बूटियों, औषधीय पौधों और मसालों की खेती में उस दौर में अंतरराष्ट्रीय मानक स्थापित किए, जब आज की कई एजेंसियाँ बनी ही नहीं थीं। आज जब ये प्रमाणन महारथी अपने लाइसेंस बचाने में व्यस्त हैं, तब यह याद दिलाना ज़रूरी है कि भारत के किसान को भरोसा सरकारी सील से नहीं, बल्कि धरती की निष्ठा से मिला था।
ब्यूरो वेरिटास मामला
सालों पहले, हम बस्तरिया जैविक किसानों की संस्था मां दंतेश्वरी हर्बल' समूह ने अमेरिका की प्रतिष्ठित प्रमाणन एजेंसी ब्यूरो वेरिटास के खिलाफ लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी थी। यही वह एजेंसी है जो वाइट हाउस, अमेरिका के राष्ट्रपति भवन की गुणवत्ता प्रणालियों तक का प्रमाणन करती रही है। लेकिन जब इस वैश्विक ईमानदारी के सर्वोच्च प्रतीक ने हम किसानों के साथ छल किया तो हमने हार नहीं मानी।
लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद, एपीडा को ब्यूरो वेरिटास को दोषी मानना पड़ा और 2 लाख का जुर्माना भरने का आदेश देना पड़ा ।
यद्यपि अमेरिकी दादागीरी दिखाकर उन्होंने अब तक भुगतान नहीं किया, पर भारत के किसान की सच्चाई अदालत में प्रमाणित हो चुकी थी। यह हमारी और भारत की जैविक प्रतिष्ठा के लिए एक ऐतिहासिक विजय थी, क्योंकि यह लड़ाई केवल एक संस्था की नहीं, बल्कि एक राष्ट्र के आत्मसम्मान की थी।
जब नीति खुद विरोधाभास बन जाए
अब जऱा सरकारी नीतियों की विडंबना देखिए। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में, जहाँ जैविक खेती को प्रोत्साहन देने की बात की जाती है, वहाँ कुल 20 करोड़ रुपये का प्रावधान जैविक खेती के लिए, और 25 करोड़ रुपये सिर्फ प्रमाणन के लिए रखा गया है।
यह ऐसा ही है जैसे घोड़े से ज़्यादा चाबुक की कीमत देना। किसान खेत में मेहनत करे और अफसर इन ठग प्रमाणीकरण संस्थाओं के साथ गठजोड़ कर जैविक प्रमाणीकरण के नाम पर सारा बजट चाट जाएँ। क्या सरकार को यह समझ नहीं कि जैविक प्रमाणीकरण तब सार्थक होगा । जब किसान के पास जैविक उत्पादन का पर्याप्त साधन और समुचित समर्थन होगा?
किसान को बिना प्रशिक्षण, बिना बाजार समर्थन, बिना उचित मूल्य गारंटी के केवल प्रमाणपत्र का बोझ देना, एक प्रकार का प्रशासनिक व्यंग्य है। भारत में आज लगभग 37 मान्यता प्राप्त प्रमाणन एजेंसियाँ काम कर रही हैं , जिनमें 14 राज्य सरकारों के अधीन हैं। लेकिन किसान तक पहुँचने वाला लाभ या सुविधा नगण्य है। किसान आज भी वही पुराना सवाल पूछ रहा है मुझे प्रमाणन नहीं, सम्मान चाहिए।
समुचित भुगतान चाहिए
यही कारण है कि जब विदेशी बाजारों में इंडियन ऑर्गेनिक उत्पाद घटिया पाए जाते हैं, तो साख सिर्फ एपीडा की नहीं गिरती देश के हर ईमानदार किसान की आत्मा को ठेस पहुँचती है। यह केवल आर्थिक नहीं, नैतिक अपराध है। क्योंकि यह जैविकता के नाम पर जैविक छल है। और जब यह छल हमारे किसानों की छवि और देश की विश्वसनीयता दोनों को धूमिल करता है, तब यह कृषि-देशद्रोह की श्रेणी से कम नहीं ठहराया जा सकता।
कार्रवाई नहीं, जवाबदेही चाहिए
एपीडा द्वारा एजेंसियों के लाइसेंस रद्द करना पहली सीढ़ी है, मंज़िल नहीं।अब ज़रूरी है कि इनसे जुड़े अधिकारियों, निर्यातकों, और दलालों की पिछले दस वर्षों की गतिविधियों का गहन, सूक्ष्म फोरेंसिक ऑडिट कराया जाए। जो एजेंसियाँ दोषी पाई गईं, उनकी मान्यता तो रद्द हो। साथ ही, उन्होंने किसानों को जो आर्थिक क्षति पहुँचाई, उसका समुचित मुआवजा भी सुनिश्चित हो। किसानों को इस व्यवस्था के दर्शक नहीं, भागीदार बनाया जाए। उनके अधिकारों और शिकायतों के लिए एक स्वतंत्र ऑर्गेनिक किसान आयोग बने, जहाँ किसान की आवाज़ प्रमाणीकरण की मुहर से ऊपर सुनी जाए।