जीएम पर उतावलापन क्यों

नई दिल्ली 09-Sep-2024 01:44 PM

जीएम पर उतावलापन क्यों

(सभी तस्वीरें- हलधर)

भारत पहले ही जीएम जैव के संबंध में एक उचित और स्वीकार्य नीति बनाने में जूझ रहा है। यूरोपीय संघ (ईयू) ने अपने सदस्य देशों में जीएम उत्पादों, बीजों के प्रवेश को प्रतिबंधित करने के लिए लंबे समय से संघर्ष किया है। ईयू जीएम जैव पर एक अपेक्षाकृत अच्छी नीति बनाने में सक्षम रहा है (हालांकि यह पूरी तरह से सही नहीं है), और यह भारत के लिए एक सबक हो सकता है। कृषि विकास का इतिहास हमें बताता है कि दुनिया ने अब तक तीन 'हरित क्रांतियांÓ देखी हैं। पहली हरित क्रांति की शुरुआत 1930 के दशक में यूरोप और उत्तरी अमेरिका में हुई। इसमें उर्वरक, कीटनाशक, फसल प्रजातियां, मशीनरी और कृषि प्रबंधन में सुधार शामिल था, जिसके परिणामस्वरूप मक्का और अन्य तापमान-जलवायु पर आधारित फसलों की उपज में तेजी से वृद्धि हुई। दूसरी हरित क्रांति 1960 और 1970 के दशकों में आई, जिसमें कुछ भारतीय राज्य भी शामिल थे। इस क्रांति ने विकासशील देशों और गर्म इलाकों में उगाई जाने वाली फसलों के लिए समान तकनीकें उपलब्ध कराईं। लेकिन, इन तकनीकों को स्वदेशी अनुसंधान और विस्तार नेटवर्क के माध्यम से स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलित किया गया। जीएम उत्पाद, विशेषकर कृषि में आनुवंशिक इंजीनियरिंग का उपयोग करके बने बीज, 1970 के दशक में प्रकट हुए और 1990 के दशक से मुख्यत: उत्तरी अमेरिका में इनका व्यवसायीकरण किया गया। इस तकनीक के समर्थकों का दावा है कि इससे कृषि उत्पादकता में भारी वृद्धि होगी और खाद्य आपूर्ति में गुणात्मक सुधार होगा।
पहली दो हरित क्रांतियों और तीसरी हरित क्रांति के बीच सबसे बड़ा अंतर यह है कि तीसरी क्रांति को उतनी निर्णायकता के साथ अपनाया नहीं गया। मानव, पशु और पौधों पर जीएम प्रौद्योगिकी के दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों के बारे में संदेह बना हुआ है। यूरोपीय संघ के देशों ने जीएम उत्पादों पर सख्त नियामक प्रतिबंध लगाए हैं। जबकि, अमेरिका, कनाडा, अर्जेंटीना और ब्राजील ने अधिकांश कृषि-जैव प्रौद्योगिकी के उपयोग की अनुमति दी है। भारत सहित अधिकांश दूसरे देश सही रास्ता खोजने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यूरोपीय संघ ने इस तकनीक का विरोध किया और सख्त जीएम-प्रतिबंधात्मक नीतियां अपनाईं। अधिकांश यूरोपीय सरकारों और यूरोपीय संघ ने जीएम संशोधित जैव से जुड़े जोखिमों की अनिश्चितता को ध्यान में रखते हुए एहतियाती दृष्टिकोण अपनाया, जिसे पछतावे से रोकथाम का सिद्धांत कहा जा सकता है। इसके विपरीत, अमेरिका ने दावा किया कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियमों के तहत, विशेषकर सैनिटरी और फाइटोसैनिटरी उपायों पर समझौते में निहित प्रावधानों के तहत, समान उत्पाद (वह उत्पाद जो सीधे प्रतिस्पर्धात्मक अथवा उनका विकल्प हो) के आयात को प्रतिबंधित करने के लिए ठोस वैज्ञानिक प्रमाण प्रदान करना आवश्यक है। इसका मतलब है कि संभावित आयातक या प्राप्तकर्ता देश को यह दिखाना होगा कि कोई जीएम बीज/उत्पाद (यदि कोई 'समानÓ उत्पाद है) मानव, पशु अथवा पौधों की सेहत के लिए असुरक्षित है। दिलचस्प बात यह है कि बीज या उत्पाद के 'सुरक्षितÓ होने का सबूत देने की जिम्मेदारी निर्यातकों की न होकर आयातकों पर डाल दी गई है। इसका मतलब है कि आयातकों को यह साबित करना होगा कि कोई बीज अथवा उत्पाद 'असुरक्षितÓ है। जबकि, विक्रेताओं को इसे सुरक्षित साबित करने की जिम्मेदारी नहीं है। दूसरे शब्दों में, उत्पाद को सुरक्षित माना जाएगा । जब तक कि यह साबित न हो जाए कि वह असुरक्षित है। इसलिए, मुक्त व्यापार व्यवस्था, जिसे डब्ल्यूटीओ मान्यता और समर्थन देता है, के तहत यूरोपीय संघ ठोस विज्ञान के सबूतों के अभाव में अमेरिका से जीएम बीज अथवा उत्पाद के आयात को प्रतिबंधित नहीं कर सकता। अमेरिकी दृष्टिकोण से असहमत होते हुए, यूरोपीय संघ ने अपने सदस्य देशों द्वारा जीएम बीज/उत्पादों के आयात को प्रतिबंधित करने के लिए कई तरकीबें अपनाईं। जिसकी शुरुआत 1998-2004 के दौरान जीएम फसल किस्मों के अनुमोदन पर रोक लगाने से हुई। स्थगन से नाराज होकर, अमेरिका, अर्जेंटीना और कनाडा ने 2003 में जीएम उत्पादों के लिए यूरोपीय संघ की विनियामक नीति के खिलाफ डब्ल्यूटीओ में मुकदमा दायर किया। उनका दावा था कि यूरोपीय संघ की जीएम नीति अवैध व्यापार प्रतिबंध उत्पन्न कर रही है। डब्ल्यूटीओ विवाद निपटान पैनल ने सितंबर 2006 में शिकायतकर्ता देशों के पक्ष में फैसला सुनाया और यूरोपीय संघ को अपनी जीएमओ अनुमोदन प्रक्रिया को डब्ल्यूटीओ नियमों के अनुरूप सुधारने का आदेश दिया। लेकिन , डब्ल्यूटीओ के फैसले से पहले ही, यूरोपीय संघ ने अपनी निर्णय-प्रक्रिया को बदल दिया, जो आज भी बहुत जटिल बनी हुई है। जोखिम का आकलन सदस्य देशों के वैज्ञानिक निकायों के साथ गहन परामर्श के बाद किया जाता है। इस राय को सार्वजनिक परामर्श के लिए जनता के समक्ष रखा जाता है। यूरोपीय संघ के नियमों के अनुसार, एक सदस्य देश पर्यावरण अथवा कृषि नीतिगत उद्देश्यों, शहरी और राष्ट्रीय नियोजन, भूमि उपयोग, और सामाजिक-आर्थिक प्रभाव जैसे कई आधारों पर किसी फसल को न उगाने, निषिद्ध करने, अथवा प्रतिबंधित करने का अधिकार रखता है। परिणामस्वरूप, यूरोप में व्यवसायीकरण के लिए बहुत कम कृषि जैव प्रौद्योगिकी अनुप्रयोगों को मंजूरी दी गई है। विश्व व्यापार संगठन के निर्णय और अमेरिकी सरकार के लगातार दबावों के बावजूद, यूरोपीय संघ के सदस्य और दूसरे यूरोपीय देश जीएम फसलों और अन्य उत्पादों, विशेष रूप से खाद्य शृंखला में शामिल उत्पादों को आसानी से मंजूरी देने से लगातार बचते रहे हैं। यूरोपीय संघ और अन्य देशों की अनिच्छा ने विश्व व्यापार संगठन और जीएम प्रौद्योगिकी निर्माताओं के दबाव को कमजोर कर दिया है। इस दबाव में कमी से भारत अपनी स्वतंत्र राह चुनने के लिए बेहतर स्थिति में है। सर्वोच्च न्यायालय ने जीएम जैविकी पर एक उचित और स्वीकार्य नीति लाने की जिम्मेदारी केंद्र को सौंपकर सही किया है। भारतीय नीति निर्माताओं को यूरोपीय अनुभवों की विवेचना करनी चाहिए। हमने पहले हरित क्रांति तकनीक को स्वीकार किया था, जिसके परिणामस्वरूप कृषि उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई थी। हालांकि इसके साथ कुछ दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभाव भी जुड़े थे। इस बार, जहां तक संभव हो, हमें मंजूरी देने से पहले तकनीक के दीर्घकालिक प्रभाव, सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों का सर्वांगीण आकलन करना चाहिए।


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