कृषि बजट वृद्धि दिलाएगी 'अरबपति राजÓ से मुक्ति (सभी तस्वीरें- हलधर)
भले ही वह विशुद्ध राजनीतिक कारणों से हो, भारत में धन के पुन: बंटवारे पर बहस बेहद महत्वपूर्ण है और वक्त की जरूरत भी। मु_ीभर अमीरों के हाथों में धन के केंद्रित होने की अप्रिय स्थिति की वजह से 'अरबपति राज का उदयÓ हुआ, जैसा कि पेरिस स्थित वल्र्ड इनइक्विलिटी लैब ने इसे नाम दिया है। यह कथित 'अरबपति राजÓ निश्चित रूप से उद्यमशीलता के प्रति एनिमल स्पिरिट यानी जिंदादिली या भावनात्मक जोश के उजागर होने के कारण नहीं है। लेकिन, यह इस बात का दुखद परिदृश्य है कि कैसे कुछ लोगों के हक में आर्थिक नीतियों और संसाधनों को अनावश्यक रूप से सौंप दिया गया। जॉन मेनार्ड केंज ने अपनी पुस्तक 'द जनरल थ्योरी ऑफ एम्प्लॉयमेंट, इंटरेस्ट एंड मनीÓ (1936) में 'एनिमल स्पिरिट्सÓ की व्याख्या उस असाधारण मानवीय व्यवहार के रूप में की है जो अनिश्चयपूर्ण दशाओं में निवेशकों को वित्तीय निर्णय लेने को प्रेरित करता है। पर संभवतया केंज को यह अहसास नहीं हो कि बहुसंख्यक आबादी को ऐसे ही अवसर से वंचित रखना असल में लाखों फूलों के खिलने के लिए जरूरी उत्साह और 'एनिमल स्पिरिटÓ को नष्ट करना है। किसी भी मामले में, जहां केंज गलती पर हैं, वह यह है कि मु_ी भर अरबपतियों का होना महत्वपूर्ण नहीं है, जिनकी संपत्ति एक अच्छी तरह से डिज़ाइन की गई उस मददगार प्रणाली के बल पर बढ़ती रहती है, जिसमें टैक्स छूट, बैंक ऋण बट्टे खाते में डालना और आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज शामिल हैं। बल्कि , उसी के समान संसाधनों को एक समतावादी समाज के निर्माण के लिए भी खर्च करना होगा । जहां खुशी और संतुष्टि का राज हो। आखऱिकार, संसाधन सीमित हैं और यह देखना अहम है कि इन्हें कैसे वितरित किया जाता है। शायद यही वजह है कि नॉर्डिक क्षेत्र के 4 देशों स्वीडन, डेनमार्क, नॉर्वे और फिनलैंड बेहद अच्छा कर रहे हैं और खुशहाली की सूची में लगातार अव्वल रहते हैं। एक दिन टीवी पर पैनल चर्चा के दौरान मुझसे पूछा गया कि यदि धन का पुन: वितरण करना पड़ा तो सरकार क्या कर सकती है। मेरा जवाब था कि लगता नहीं है कि अमीरों का धन छीनकर गरीबों में बांटने का कोई विचार हो। चाहिये क्या कि नीतियों और दृष्टिकोणों में पुन: बदलाव कर यह यकीनी बनाना होगा कि उनका लाभ देश के किसी भी हिस्से में मौजूद अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे। मेरा पहला सुझाव होगा यह यकीनी बनाना कि सालाना बजट का 50 फीसदी कृषि को दिया जाना चाहिय,े जो साल 2024 के लिए 47.66 लाख करोड़ है। जो मोटे तौर पर देश की आधी आबादी बनती है। खेती में आबादी का इतना बड़ा हिस्सा लगे होने के बावजूद वर्तमान में इस क्षेत्र को बजट आवंटन में 3 फीसदी से भी कम प्राप्त होता है। कृषि क्षेत्र में आप किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं कर सकते हैं यदि उचित निवेश नहीं करते। ऐसे देश में जहां सिर्फ 21 अरबपतियों के पास 700 मिलियन से अधिक की धन-संपत्ति है, और जहां 64.3 प्रतिशत आबादी से 64.3 प्रतिशत जीएसटी आता है और शीर्ष 10 फीसदी से केवल 3-4 प्रतिशत ही आता है। जहां पहले से ही काफी निवेश किया जा चुका हो, वहां संसाधनों को लगाने में कोई आर्थिक समझदारी नहीं। इसके विपरीत, वित्तीय संसाधनों का समान और न्यायसंगत तरीके से पुनर्वितरण करना नितांत आवश्यक है। खेती में लगी 50 फीसदी आबादी को आर्थिक संसाधनों में उसके जायज हिस्से से क्यों वंचित किया जाए। जबकि, लगातार सरकारें साल-दर-साल औद्योगिक क्षेत्र के लिए बड़े पैमाने पर बजटीय प्रावधान करती रही हैं। मुझसे सवाल किया गया कि खेती से आमदनी पर कोई टैक्स नहीं है, और वह इस सेक्टर के लिए बड़ी वित्तीय मदद है। वास्तव में, पैनल चर्चा में शामिल एक वेंचर कैपिटलिस्ट ने यहां तक पूछा कि अमीर किसानों पर कर क्यों नहीं लगाया जाना चाहिए्र। जबकि उन्हें यह अहसास नहीं था कि भारत में केवल 1 प्रतिशत कृषक समुदाय के पास ही 10 हैक्टयर से ज्यादा जमीन है, और कृषक परिवारों के लिए स्थितिजन्य आकलन सर्वेक्षण, 2019 की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार शेष 99 प्रतिशत कृषक समुदाय की औसत आय लगभग 10,000 रुपये प्रति माह है। विडंबना है कि कॉर्पोरेट अर्थशास्त्रियों को कृषि क्षेत्र में व्याप्त संकट के बारे में बहुत कम जानकारी है। वह अभी भी पुराने जमाने की आर्थिक सोच पर चलते हैं जो किसानों को शहरों में प्रवासी दिहाड़ी मजदूरों में शामिल होने के लिए प्रेरित करने पर आधारित थी। एक दूसरे पैनल चर्चा में, मैंने बताया कि कैसे कॉर्पोरेट कंपनियां पिछले दस वर्षों में 16 लाख करोड़ रुपये के बैंक राइट-ऑफ लेकर गयी हैं, और इसके साथ सितंबर 2019 से हर साल 1.45 लाख करोड़ रुपये की टैक्स कटौती दी गई है। इतना कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बैंकों को जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों के साथ 'समझौताÓ करने का निर्देश दिया है, जिन पर 3.45 लाख करोड़ रुपये का बकाया है, जिनके पास भुगतान करने के लिए संसाधन हैं । लेकिन, वह परवाह नहीं करते हैं। जिस तरह से किसानों को बैंक की किस्तें चुकाने में असमर्थ होने के चलते जेल में डाल दिया जाता है, उसी तरह 16,400 जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों को भी जेल की सजा होनी चाहिए थी। इसके बजाय उन्हें आसानी से छोड़ दिया गया। इस तरह के भारी राइट-ऑफ से अमीरों को जाहिर तौर पर राहत मिलती है। उनकी जीवनशैली हमेशा पूर्ववत चलती रहती है। यदि किसानों को भी ऐसी राहत राशि दी जाती है तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि वे भी अपनी 'एनिमल स्पिरिटÓ का प्रदर्शन करने में सक्षम होंगे। मई 1996 में जब वाजपेयी सरकार ने पहली बार शपथ ली, तब नई सरकार द्वारा अपनाए जाने वाले आर्थिक उपायों के बारे में सुझाव देने के लिए बुलाई गई अर्थशास्त्रियों की एक बैठक में मेरा सुझाव था कि कृषि में संलग्न 60 प्रतिशत आबादी के लिए वार्षिक बजट का 60 प्रतिशत प्रदान किया जाए, यदि विचार सत्ता विरोधी लहर से बचने का हो। (उस समय जनसंख्या का 60 प्रतिशत हिस्सा कृषि का था)। यह बात अब भले ही भुला दी गई हो। लेकिन, वाजपेयी सरकार ने घोषणा की थी कि वह अपने बजट का 60 प्रतिशत हिस्सा कृषि के लिए समर्पित करेगी। यह एक ऐसा परिवर्तन कारी कदम होता जिसकी देश को तलाश थी। जहां तक मुझे याद है यह पहली बार था कि संसाधनों के पुनर्वितरण का प्रयास किया गया था। दुर्भाग्य से, सरकार 13 दिन में ही गिर गयी। यदि केवल वाजपेयी सरकार कायम रहती, कृषि पर बजट आवंटन में 60 फीसदी लगाने के नीतिगत फैसले से ग्रामीण अर्थव्यवस्था यकीनी तौर पर पुनर्जीवित होती , और उसके असर से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में तेजी आती। उसके चलते अब तक सबका साथ सबका विकास यकीनी बनता। अब जबकि नव-उदारवाद हांफ रहा है, और अपने अंतिम चरण में है, ऐसे में धन के पुन: वितरण की किसी भी बात को अर्थशास्त्रियों के शासक वर्ग के कड़े विरोध का सामना करना पड़ेगा। उनसे घबराएं नहीं, बल्कि खड़े हो जाओ और अपनी राय से अवगत कराएं। और विश्वास रखें कि धन का पुन: वितरण एक विचार है जिसका समय अब आ गया है।
देविंदर शर्मा, कृषि- खाद्य विशेषज्ञ