पौष्टिक खुराक बनाम पौष्टिकता का भ्रामक प्रचार

नई दिल्ली 28-May-2024 11:13 AM

पौष्टिक खुराक बनाम पौष्टिकता का भ्रामक प्रचार (सभी तस्वीरें- हलधर)

पिछले सप्ताह हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पौष्टिकता संस्थान, जो कि भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के तत्वावधान तले देश में सबसे पुरानी अनुसंधान प्रयोगशालाओं में एक है, ने भारतीयों के लिए खान-पान दिशा निर्देश जारी किये हैं। यह दस्तावेज हजारों स्वयंभू और तथाकथित विशेषज्ञों द्वारा सोशल मीडिया पर पौष्टिकता, भोजन और खुराक को लेकर मचाई जाने वाली चिल्ल-पों के बीच ताजी हवा का झोंका बनकर आया है । क्योंकि, उक्त लोगों की भोजन और पौष्टिकता पर कही अधिकांश बातें भ्रामक और झूठी होती हैं। आलम यह है कि एक ओर खाद्य पदार्थ उत्पादक कंपनियां और घर तक व्यंजन पहुंचाने वाले एप्प आधारित सेवा प्रदाता उपभोक्ता को यकीन दिलवा रहे हैं कि घर का खाना एक पाप है। वहीं फूड-ब्लॉगर हर ऐरे-गैरे रेहड़ी-ढाबे वाले के चीनी, नमक और वसा से भरे ऊलजलूल व्यंजनों को असली स्वाद और स्वर्गिक बताकर महिमामंडित कर रहे हैं। स्वयंभू पौष्टिकता विशेषज्ञ और मशहूर चेहरे अंजान उपभोक्ता को खान-पान का नया चलन बताकर उलझा रहे हैं । फैक्ट्री में बने खाद्य उत्पादों पर स्वास्थ्यकर और ताजा का ठप्पा लगाकर बेचा जा रहा है । जबकि, सेहत- ताजगी से दूर-दूर तक वास्ता नहीं है। निस्संदेह, एक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम द्वारा विभिन्न उम्र वर्ग और अंचल के लोगों के लिए प्रमाण-आधारित और तथ्यात्मक खुराक निर्देशावली जारी करना स्वागत योग्य है। लगभग एक सदी से एनआईएन (नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन) भारत में पौष्टिकता और खाद्य संबंधी अनुसंधान कार्य में लगा है और इस विषय में ज्ञान का भंडार है। पौष्टिकता संबंधी लगभग सभी राष्ट्रीय कार्यक्रम जैसे कि एकीकृत बाल विकास योजना, मिड-डे मील योजना और साल्ट आयोडाइजेशन के अलावा पौष्टिकता की कमी के उत्पन्न रोगों का निदान करने वाली योजनाएं एनआईएन द्वारा दिए वैज्ञानिक शोध आधारित परामर्श पर आधारित है। खुराक संबंधी नवीनतम निर्देशावली इस समृद्ध विरासत का एक हिस्सा है। सरसरी तौर पर देखने पर 17 निर्देशों वाला यह परामर्श पुरानी बातें और साधारण सा लगता है, मसलन, विभिन्न भोज्य पदार्थों से युक्त खुराक स्वास्थ्यकर होती है, फल और सब्जियों का सेवन अधिक मात्रा में करें और वसा का उपयोग न कम, न ज्यादा मात्रा में करें। लेकिन, इस निर्देशावली की असली ताकत है प्रत्येक निर्देश भारत के संदर्भ में प्रमाण आधारित है। इस संहिता में प्रत्येक आयु-वर्ग के स्वास्थ्य को प्रोत्साहन और बीमारियों की पूर्व-रोकथाम पर जोर दिया गया है, इसमें जहां एक ओर विशेष ध्यान शिशुओं, स्तनपान करवाने वाली महिलाओं और बुजुर्गों पर है तो वहीं अन्य अवयवों की भूमिका जैसे कि शारीरिक गतिविधियां, सुरक्षित पेयजल, साफ-सफाई और पर्यावरणीय पहलुओं पर भी है। इस खुराक परामर्श को भोजन वर्ग और आम भारतीय की खुराक और खाद्य अवयवों को आधार बनाकर तैयार किया गया है, जैसे कि, अनाज, दालें, दूध, सब्जियां और फलों का समुचित मात्रा में समावेश कर खुराक तय करना। इस दस्तावेज़ का एक अहम हिस्सा है खाद्य उत्पादों पर लगे लेबल को सही ढंग से पढऩा और समझना सिखाना। इसमें प्रचलित भ्रामक दावों की असलियत समझाई गई है, जैसे कि पूर्ण प्राकृतिक, असली फल अथवा रस युक्त, पूर्ण अऩाज (मिलेट), चीनी-मुक्त, कॉलेस्ट्रॉल रहित, स्वास्थ्य-मित्र, जैविक, कम-वसा युक्त इत्यादि अर्धसत्य शब्दों का प्रयोग करना। अतएव लोगों के मन में बैठायी गई गलत धारणा के आलोक में एनआईएन जैसे प्रमाणिक संस्थान द्वारा लेबल को सही अर्थों में समझाना बहुत महत्वपूर्ण बन जाता है। इन दिशा-निर्देशों का वृहद संदर्भ है भारत में इन दिनों बीमारियों द्वारा नया रूप धरने की प्रक्रिया। देश के समक्ष जहां कुपोषण और अल्पपोषण रूपी समस्या है तो दूसरी ओर मोटापा और अति-मोटापा। अनुमान है कि भारत में बीमारियों के कुल बोझ के पीछे 56.5 फीसदी कारक गलत खुराक है। व्याधियों में अधिकतर हिस्सा मधुमेह, उच्च रक्तचाप और हृदय रोग का है। शारीरिक गतिविधियों में बढ़ोतरी के साथ स्वास्थ्यकर भोजन लेने से हृदय संबंधी अवस्था, रक्तचाप और मधुमेह टाइप-2 जैसी बीमारी को काफी हद तक घटाया जा सकता है। एनआईएन का सर्वेक्षण बताता है कि 1-19 साल आयु-वर्ग में काफी संख्या अब उनकी है जिनमें उम्र से पहले गैर-संक्रमित रोग जैसे कि मधुमेह और उच्च-रक्तचाप देखने को मिल रहे हैं। कुपोषित और अल्प-पोषित और सामान्य वृद्धि वाले बच्चों की आधी संख्या में मैटाबॉलिक बायोमार्कर्स का मिलना चिंता का विषय है। हमारी रोजमर्रा की खुराक मूलत: नाकाफी है। मसलन, भारतीयों की रोजाना की खाद्य ऊर्जा जरूरत (2000 कैलोरी) में सामान्यत: ग्राह्य भोजन में अनाज (चावल, गेहूं, मोटा अन्न) की मात्रा कायदे से 45 फीसदी तक होनी चाहिए। लेकिन , आंकड़े बताते हैं कि इनका अंश 50-70 प्रतिशत तक है। एनआईएन का कहना है कि जनसंख्या के बड़े भाग में माइक्रोन्यूट्रेंट-सघन पदार्थ (अनाज, दालें, फलियां, मेवा, ताजा सब्जी, फल इत्यादि) का सेवन अनुशंसित स्तर सेे कम है। सीमित उपलब्धता और दालों और मांस की ऊंची कीमतें लोगों को गेहूं-चावल जैसे आम अनाज पर निर्भर रहने को मजबूर करती हैं। इसके अलावा, स्वास्थ्यप्रद विकल्पों की अपेक्षा अति-प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ, बहुत अधिक वसा, नमक और चीनी युक्त खाद्य वस्तुओं का मूल्य अधिक वहन योग्य और सुलभ हो गया है। ऐसे उत्पादों का ताबड़तोड़ विज्ञापन और प्रचार की तरकीबें बच्चों- बड़ों की भोजन संबंधी प्राथमिकताओं को प्रभावित कर रहे हैं। जो कुछ हम खाते हैं वह भोजन संबंधी उस माहौल पर निर्भर होता है जहां हम रहते हैं, आगे जिसका निर्धारण और स्वरूप सरकारी नीतियों पर निर्भर है। यदि अनाज, मांस और दालें गरीब की क्रय शक्ति से बाहर हो जाएं अथवा परम-प्रसंस्कृत और अस्वास्थ्यकारी विकल्प अधिक सस्ते और आकर्षक बन जाएं तो ये स्थितियां गलत सरकारी नीतियों का परिणाम हैं। खुराक दिशानिर्देशों के अनुपालन को आसान बनाने वास्ते हमें अनेकानेक क्षेत्रों में सामंजस्य विकसित करने वाली नीतियां बनानी होंगी। जैसे कि कृषि, खाद्य प्रसंस्करण, खाद्य सुरक्षा, विज्ञापन और विपणन, उपभोक्ता जागरूकता, स्वस्थ जीवनशैली को बढ़ावा, औद्योगिक प्रोत्साहन, पैकेजिंग इत्यादि। स्वास्थ्यकारी भोजन करना एक उपभोक्ता की जिम्मेवारी और चुनाव का विषय है। लेकिन , सरकारी उत्तरदायित्व है कि ऐसा खाद्य माहौल पैदा करें । ताकि, लोग जो भी चुनें वह सही हो। एनआईएन ने अस्वास्थ्यकारी और अति-प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों को भ्रामक लेबल और आक्रामक विज्ञापन प्रचार के दम पर बेचने पर चिंता जताई है। लेकिन, इस चेतावनी का क्या फायदा जब खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय एक जैसे उत्पाद बनाने वाली कंपनियों (कोला अथवा चिप्स निर्माता इत्यादि) को सब्सिडी मुहैया करके बढ़ावा दे और खाद्य नियंत्रण प्राधिकरण उनके साथ याराना निभाएं। एक दूसरा उदाहरण है गेहूं-चावल जैसे आम प्रचलित अन्न की खपत घटाने की जरूरत में दालों, फल, मांस इत्यादि के सेवन को प्रोत्साहित करने की बजाय मोटा अनाज अपनाने का अतिशयी प्रचार करना। मोटे अनाज पर जोर देने का नुकसान भी है कि यह मिलेट कुकीज़ के नाम पर प्रसंस्कृत खाद्य वस्तुएं बेचने का दूसरा अवसर बन गया है। हमें अपनी सार्वजनिक नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन करने की जरूरत है । ताकि, खुराक संबंधी दिशा-निर्देश लोगों के लिए वास्तविक विकल्प बन सकें।

दिनेश सी. शर्मा, विज्ञान विषय के टिप्पणीकार


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