बढ़ती प्यास और गुम होते कुएं (सभी तस्वीरें- हलधर)
सारे देश में बरसात के बीत जाने के बाद पानी की त्राहि-त्राहि अब सामान्य बात हो गई है। हताश जनता को जमीन की छाती चीर कर पानी निकालने अथवा बडे बांध के सपने दिखाये तो जाते हैं । लेकिन, जमीन पर कहीं पानी दिखता नहीं। आखिर नदियों में भी तो प्रवाह घट ही रहा है। आने वाले साल मौसमी बदलाव की मार के कारण और अधिक तपेंगे और पानी की मांग बढेगी। ऐसे में हमारे पारंपरिक कुएं ही मानव-अस्तित्व को बचा सकते हैं। हमारे आदि-समाज ने कभी बडी नदियों को छेडा नहीं, वे बडी नदी को अविरल बहने देते थे। साल के किसी बडे पर्व-त्योहार पर वहां एकत्र होते बस। खेत-मवेशी के लिए अथवा तो छोटी नदी अथवा फिर तालाब-झील। घर की जरूरत जैसे पीने और रसोई के लिए या तो आंगन में या फिर बसाहट के बीच का कुआं काम करता था। यदि एक बाल्टी की जरूरत है तो इंसान मेहनत से एक ही खींचता था। किफायत से खर्च करता। अब की तरह नहीं कि बिजली की मोटर से एक गिलास पानी की जरूरत के लिए दो बाल्टी पानी बर्बाद कर दिया जाए। गौरतलब है कि भारत के लोक जीवन में परंपरा रही है कि घर में बच्चे का जन्म हो या फिर नई दुल्हन आए, घर-मोहल्ले के कुएं की पूजा की जाती है- जिस इलाके में जल की कीमत जान से ज्यादा हो वहां अपने घर के इस्तेमाल का पानी उगाहने वाले कुएं को मान देना तो बनता ही है। बीते तीन दशकों के दौरान भले ही प्यास बडी हो। लेकिन सरकारी व्यवस्था ने घर में नल अथवा नलकूप का ऐसा प्रकोप बरपाया कि पुरखों की परंपरा के निशान कुएं गुम होने लगे। अब कुओं की जगह हैंडपंप पूज कर ही परंपरा पूरी कर ली जाती है। वास्तव में हर नए जीवन को सीखना होता था कि आंगन का कुआं ही जीवन का सार है। समझना होगा कि असली समस्या कम बरसात अथवा तीखी गर्मी नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढियों से होता रहा है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों और नैसर्गिक जल साधनों के अधिक से अधिक शोषण की नीतियों ने ले ली। बडे करीने से यहां के आदि-समाज ने बूंदों को बचाना सीखा था। दो तरह के तालाब- एक केवल पीने के लिए, दूसरे केवल मवेशी और सिंचाई के। पहाड की गोदी में बस्ती और पहाड की तलहटी में तालाब। तालाब के इर्दगिर्द कुएं ताकि समाज को जितनी जरूरत हो, उतना पानी ले। पिछले साल ही संसद में बताया गया कि छठवें लघु सिंचाई गणना के आंकडों के मुताबिक देश में अभी भी 82 लाख 78 हजार 425 कुएं बकाया हैं। इनमें सबसे अधिक 27 लाख 49 हजार 88 उस महाराष्ट्र में हैं जहां किसानों की आत्महत्या का आंकडा सर्वाधिक है। उसके बाद उस मध्य प्रदेश में 13 लाख 36 हजार 682 कुओं की चर्चा अकारण होगी। जहां प्यास और पलायन के कारण बदनाम बुंदेलखंड है। तमिलनाडु में इससे अधिक 15 लाख 77 हजार 198 कुएं हैं । लेकिन अब भी इस राज्य में ऐरी पद्धति के चलते दूरस्थ अंचल तक तालाब-कुओं का प्रबंधन बेहतर है। दुर्भाग्य है कि उत्तर प्रदेश जैसे बडे राज्य में महज 85224 कुओं का रिकार्ड मिल पाया। अकेले लखनऊ में 12653 कुओं व तालाब का रिकार्ड तो सरकारी फाइल में ही है। यदि बुंदेलखंड में ही देखें तो आज भी कुओं के नाम पर सार्वजनिक नल-जल योजनाएं चल रही हैं। कुओं का रखरखाव कम खर्चीला है। कुओं के इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन से धरती को गर्म नहीं करते। कुओं को थोडी-सी बरसात होने पर भी हर बूंद को एकत्र करने का पात्र बनाना बहुत सरल होता है। प्राचीन जल संरक्षण और स्थापत्य के बेमिसाल नमूने रहे कुओं को ढकने, उनमें मिट्टी डाल कर बंद करने और उन पर दुकान-मकान बना लेने की रीत वर्ष 90 के बाद तब शुरू हुई । जब लोगों को लगने लगा कि पानी, वह भी घर में मुहैया करवाने की जिम्मेदारी सरकार की है। फिर आबादी के बोझ ने जमीन की कीमत को प्यास से अधिक महंगा बना दिया। तरह-तरह की मशीन बेचने वालों ने खुले कुएं के पानी को अशुद्ध और बीमारी का घर बताने के प्रचार किये। सनद रहे जब तक कुएं से बाल्टी डाल कर पानी निकालना जारी रहता है उसका पानी शुद्ध रहता है, जैसे ही पानी ठहर जाता है, उसकी दुर्गति शुरू हो जाती है। कई करोड की जल-आपूर्ति योजनाएं अब जल-स्रोत की कमी के चलते अपने उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पा रही हैं। यह समझना जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन के साल दर साल गहराने के चलते भारत में लघु और स्थानीय परियोजनाएं ही जल संकट से जूझने में समर्थ हैं। अभी भी देश में बचे कुओं को कुछ हजार रुपये खर्च कर जिंदा किया जा सकता है। एक बार कुओं में पानी आ गया तो समाज फिर खुद लोक परंपरा और प्यास दोनों के लिए कुओं पर निर्भर हो जाएगा।