विसंगतियों की भेंट चढ़ती भारत की कृषि नीतियां - कृषि की ज्वलंत समस्याएं
(सभी तस्वीरें- हलधर)मरीज ए इश्क पर रहमत खुद की, मरज बढ़ता गया जूं जूं दवा की...। मियां ग़ालिब यह पंक्तिया भारत की खेती और किसानों के हालात पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं। हाल ही में देश का आर्थिक सर्वेक्षण और सालाना बजट पेश किया गया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने कृषि को देश के विकास का इंजन बताया। सैद्धांतिक आधार पर उनका यह कथन गलत भी नहीं है। क्योंकि , देश की लगभग 70 प्रतिशत रोजगार और 100 प्रतिशत जनता भोजन के लिए कृषि और कृषि संबद्ध उपक्रमों पर ही आश्रित है। लेकिन, दिन-प्रतिदिन किसान आत्महत्या के बढते आंकडे कृषि प्रधान कहलाने वाले देश के लिए इससे बड़ा दु:ख और शर्म का विषय और क्या हो सकता है। विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का दम अवश्य भरिए, पर हकीकत से भी आंख मत चुराइए। आंकड़े हमें आईना दिखा रहे हैं कि अमेरिका के किसान की सालाना आमदनी 65 लाख रुपए यानि कि दैनिक आमदनी 18 हजार रुपए है। वहीं भारत के किसान की प्रतिदिन की आमदनी 27 रुपए मात्र है। ऐसे में में देश के करोड़ों किसान परिवार किन कठिन हालातों में जीवनयापन करते होंगे, यह हमारे देश की भाग्य विधताओं को आखिर कब समझ में आएगा।
कृषि की वर्तमान और भावी ज्वलंत समस्याएं
जलवायु परिवर्तन: पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण खबर आई की गेहूं पकने के समय गर्मी के बढ़ जाने के कारण गेहूं के दाने सिकुड़ गए और देश के सकल गेहूं उत्पादन में लगभग 16 प्रतिशत की कमी आई। लगभग डेढ़ अरब जनसंख्या वाले देश भारत के लिए यह बेहद ही चिंताजनक और अलार्मिंग स्थित है। पर्जन्य: पर्जन्या: फलं कृषकस्य सुखाय (वर्षा का फल किसान की सुख के लिए है) - यह वैदिक उद्धरण खेती में मौसम की महत्ता को दर्शाता है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन की अनियमित वर्षा, बाढ़, और सूखे जैसी समस्याओं से निपटना किसान के बस का नहीं है। फसल-चक्र बदलने के साथ ही किसानों को अपनी खेती की पद्धतियों में भी आवश्यक बदलाव करना जरूरी है।
वाजिब मूल्य: किसानों की सबसे बड़ी समस्या यही है कि उन्हें उनके उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता है।
आर्थिक सहयोग विकास संगठन और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की एक रिपोर्ट के अनुसार 2000 से 2017 के बीच किसानों को उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाने के कारण 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। सरकार की ही शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि एमएसपी का लाभ सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता। जिसका सीधा मतलब है कि देश के 94 प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता है और वह एमएसपी के फायदे से दूर रहते हैं। देश के किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल पाने के कारण 5 से 7 लाख करोड़ का सालाना घाटा होता है।
किसानों पर कर्ज का बोझ: किसान को उनके उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाने के कारण उन्हें प्राय: घाटा उठाना पड़ता है और उनकी आय बहुत ही कम रहती है। कर्ज का बोझ और ब्याज की उच्च दरें किसानों की आर्थिक स्थिति को और भी खराब करती हैं। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के आंकड़ों के अनुसार, देश के लगभग 47 प्रतिशत किसान औसतन कर्ज में डूबे हुए हैं।
नीतिगत विसंगतियां: प्राचीन मान्यता रही है कि राज्यं पालयेत् कृषि पालेन अर्थात राज्य की रक्षा कृषि की रक्षा से होती है। यह दर्शाता है कि कृषि की रक्षा किसी भी राष्ट्र की समृद्धि के लिए अनिवार्य है। जबकि हमारी सरकारों की नीतियां अक्सर किसान विरोधी रही हैं हैं। पिछले भूमि अधिग्रहण कानून, नए तीनों विवादास्पद कृषि कानून, हालिया बिजली बिल कानून इसके उदाहरण है। किसानों को यह डर है कि सरकार की ये सभी नीतियां अंतत: उनके हितों के खिलाफ ही काम करेंगी और उन्हें बड़े कार्पोरेट्स के सम्मुख मजबूर कर देंगी।
*असल जिम्मेदार कौन: अब लाख टके का सवाल यह है कि इन किसान विरोधी नीतियों के लिए कौन जिम्मेदार है। यह सवाल तथा इसके जवाब दोनों बहुआयामी हैं, जैसे कि
सरकारी नीतियां- सत्ता के लिए वोटों की शुुद्र राजनीति और कॉरपोरेट और सरकार की अनैतिक गठजोड़ के कारण सरकार की नीतियों और उनकी कार्यान्वयन की प्रक्रिया अक्सर किसानों के हितों के विपरीत होती है। नानाविध कारणों से कृषि कानूनों और तमाम दूसरे सुधारों के बावजूद, उनका क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं हो पाता।
कॉर्पोरेट हित सर्वोपरि- राजनीतिक पार्टियों चुनाव लडऩे के खर्च के लिए बड़े कॉरपोरेट्स के चंदे पर निर्भर हैं। इसलिए बड़े कॉर्पोरेट घरानों के हितों का प्रभाव भी कृषि नीतियों पर स्पष्ट देखा जा सकता है। भूमि अधिग्रहण, नकदी फसलों की प्रवृत्ति और कृषि में निवेश की नीतियों पर कॉर्पोरेट का दबदबा रहता है। 2020-21 में, कॉर्पोरेट कंपनियों का कृषि में निवेश बढ़कर 78,000 करोड़ हो गया । इन दिनों हर बड़ा कॉर्पोरेट येन-केन प्रकरेण किसानों की भूमि हासिल कर अपने लैंड-बैंक की वृद्धि करने में करने में लगा हुआ है। यह स्थिति देश के छोटे किसान जो कि लगभग 84 प्रतिशत है, के लिए बेहद चिंताजनक है
सामाजिक कुचक्र- भारतीय समाज की सामंती और जातिगत संरचना भी कृषि में असमानता को बढ़ावा देती है। छोटे और सीमांत किसान अक्सर बड़े जमींदारों और धनी किसानों के दबाव में रहते हैं। यह इस स्थिति में हालांकि कुछ परिवर्तन आया है पर अभी भी उनकी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए बहुत कुछ किया जाना है।
वोट केन्द्रित किसान नेतृत्व- लोकतंत्र में हर समुदाय, समूह अपनी सामाजिक स्थिति के अनुरूप अपना हक हासिल करने का प्रयास करता है। इस दौड़ में किसान कतार में सबसे अंतिम पायदान पर खड़े हैं । दरअसल देश की जनसंख्या का सबसे बड़ा भाग होने के बावजूद आज भी किसान एक संगठित वोट बैंक नहीं बन पाए हैं। भले उनके मुद्दे और सारी समस्याएं समान होती हैं। पर यह समुदाय कभी भी अपने मुद्दों पर न तो पूरी तरह से एकजुट होता है और ना ही अपने मुद्दों पर एकमुश्त वोट देता है । कई बड़े आंदोलनों के निर्णायक मौकों पर ऐसे नेता अपने शुद्र स्वार्थों के लिए आंदोलन को बेचने तक से बाज नहीं आते। अपने इन्हीं धतकर्मों से किसानों की जनसंख्या 70 प्रतिशत होने के बावजूद यह समुदाय पिछले 75 सालों से 40 प्रतिशत वोट पाकर बनने वाली निकम्मी सरकारों का मुंह ताक रहा है। वर्तमान में किसानों में नई चेतना जगी है। ऐसे दौर में देश के किसानों की समस्यायों तथा समाधान के संदर्भ में प्रखर रूसी कवियत्री येलेना येरिख की ये पंक्तियां राह दिखाती प्रतीत होती हैं।*
बीहड़ से गुजऱते हाथियों की तरह,
झाडयि़ों को रौंदते हुए,
हटाते हुए पेड़ों को अपने रास्ते से,
तुम भी चलो महान तपस्या की राह पर।
इसलिए तुम्हें,
संघर्ष करना आना चाहिए (अनु.वरयाम सिंह )
डॉ राजाराम त्रिपाठी, राष्ट्रीय संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा )