बरसात के मौसम में पशुओं की देखभाल - पशुओं के लिए विशेष आहार (सभी तस्वीरें- हलधर)
गीतम सिंह, लक्ष्मी कांत शर्मा , माधव विश्वविद्यालय, सिरोही
अगर पशुओं की अच्छी तरह देखभाल हो तो ज्यादातर रोगों से बचा जा सकता है। लेकिन, पशुओं की सही देखभाल के लिए बारिश के मौसम में पशुओं में होने वाले रोग, रोगों के उपचार और उसके कारण को समझना जरूरी है। हालांकि कुछ संक्रामक रोगों के लिए पशुओं का टीकाकरण कराया जा सकता है। अगर किसान इन बातों का ध्यान रखते हैं तो पशुओं के दूध उत्पादन की क्षमता प्रभावित नहीं होगी। लेकिन अच्छे खाने पीने और देखभाल के साथ बारिश के मौसम में होने वाले बीमारियों के लिए जरूरी रोकथाम किया जाना चाहिए।
साफ-सफाई
बारिश के मौसम में पशुओं को कई तरह की बीमारियां होती है। बरसात के मौसम में शेड में पानी नहीं भरना चाहिए और बाड़े की नालियाँ साफ सुथरी रहनी चाहिए। बाड़े की सतह सुखी और फिसलन वाली नहीं होनी चाहिए। लगातार गीले होने के कारण पशुओं के खुरों में संक्रमण होने की संभावना अधिक रहती है, इसलिए सप्ताह में एक या दो बार हल्के लाल दवाई के घोल से पशुओं के खुरों को साफ करना चाहिए।इसलिए बरसात के मौसम में पशुओं के रखरखाव पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती हैं।
पशुओं को आहार
हर मौसम में पशुओं के लिए विशेष आहार होता है। ताकि , मौसमी परिस्थितियों के अनुसार मवेशियों का शरीर सही तरीके से सामंजस्य स्थापित कर सकें। पशु बेजुबान होते हैं, उन्हें किसान जैसा चारा दे दें वो खा लेते हैं। लेकिन, काफी ज्यादा किसान बारिश के मौसम में ज्यादा घास दे देते हैं। इस समय घास की पैदावार भी ज्यादा होती है। इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि बारिश के मौसम में ज्यादा घास या गीला चारा देना पशुओं के पाचन के लिए सही नहीं होता। इससे पशुओं में दस्त लगने की शिकायत हो जाती है। जब पशु दस्त की समस्या से ग्रस्त हो जाते हैं तो शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं। दुधारू पशुओं के पालन में इस बात का ज्यादा ध्यान रखें। दुधारू पशुओं के साथ ऐसी समस्या होने पर किसानों को काफ ी ज्यादा नुकसान हो जाता है। इसलिए पशुओं को गीला चारा यानी घास के साथ कम से कम 40 प्रतिशत तक सूखा चारा जरूर दें। इससे आहार में संतुलन रहेगा। बारिश के मौसम में पशुओं को देने वाले आहार के मामले में इन दो प्वाइंट का जरूर ध्यान रखें:-
1 पहला तो यह है कि पशुओं को 60 प्रतिशत घास के साथ कम से कम 40 प्रतिशत तक सूखा चारा दें।
2 पशुओं को उतना चारा ही दें जितना वह खाते हैं। सुबह और शाम का चारा एक साथ न लगाएं। कई बार किसान यह भी सोचते हैं कि दोनों समय का चारा एक साथ लगा लेते हैं, इससे समय की बचत होगी और शाम को आसानी से पशुओं को चारा दिया जा सकता है। लेकिन, ऐसा नहीं है, सूखे चारे में गीलापन आ जाने से उसमें फ फूं द की समस्या हो जाती है। फ फ ूंद पशुओं में बदहजमी का कारण बनती है। इसलिए दुधारू पशुओं के लिए इस बात का खास ध्यान रखें। ताकि, उसे बदहजमी अथवा दस्त की शिकायत न हो। ताकि पशु कमजोर न हो और पशुओं के दूध उत्पादन के क्षमता में भी कमी न हो।
बारिश के सामान्य रोग
एंथ्रेक्स - यह सभी गर्म रक्त वाले पशु विशेष रूप से मवेशी, भैंस, भेड़, बकरी में होने वाला एक तीव्र, व्यापक, संक्रामक रोग है। यह रोग मिट्टी से पैदा होने वाला संक्रमण है। यह आमतौर पर बड़े जलवायु परिवर्तन के बाद होता है। यह बीमारी ज्यादातर पशुओं के दूषित चारा खाने से और दूषित पानी पीने से होती है। यह इनहेलेशन और बिलिंग मक्खियों द्वारा भी फैलती है।
लक्षण - अचानक शरीर का तापमान का बढ़ जाना भूख ना लगना. शारीरिक कमजोरी महसूस होना सांस लेने में तकलीफ होना एवं हृदय की गति की रफ्तार बढ़ जाना। गुदा, नासिका, योनी आदि जैसे प्राकृतिक छिद्रों से खून का बहाव होना आदि।
नियंत्रण - सबसे पहले संक्रमित जानवरों को स्वस्थ जानवरों से अलग कर दे। संक्रमित क्षेत्र से स्वच्छ क्षेत्र में पशुओं की आवाजाही बंद कर दे। 10: कास्टिक सोडा या फॉर्मेलिन का इस्तेमाल करके पशुओं के रहने की जगह को पूरी तरह से कीटाणुरहित करें।
2.खुर- मुख संबंधी बीमारियां- खुर-मुख संबंधी बीमारियां बरसात के मौसम में इस तरह की बीमारियां पशुओं में आम पायी जाती है। इसमें पैर और मुख की बीमारी (एफएमडी) मवेशी, गाय, भैंस, भेंड़, बकरी, सूअर आदि पालतू पशुओं और हिरन आदि जंगली पशुओं को होती है। यह बीमारी भारत के कई हिस्सों में वास करने वाले पशुओं को मुख्यत: होती है।
प्रबंधन - इस बीमारी को रोकने के लिए प्रभावित जानवरों को दूसरे जानवरों के संपर्क में नहीं आने देना चाहिए। पशुओं की खरीद बीमारी से प्रभाबित क्षेत्रों से नहीं होनी चाहिए। जब भी नए पशु की खरीदी करें तो उनको खरीदी के 21 दिनों तक अकेला रखना चाहिए।
उपचार- बीमार पशु के रोग से प्रभावित अंग को जैसे उनके मुख-पैर को 1 प्रतिशत पोटैशियम परमैगनेट के घोल से धोना चाहिए। उनके मुख में बोरिक एसिड ग्लिसरीन का पेस्ट लगाना चाहिए। साथ ही , जानवरों को 6 महीने के अंतराल से एफएमडी के टीके लगवाने चाहिए।
ब्लैक क्वार्टर - यह पशुओं में होने वाला एक तीव्र संक्रामक और अत्यधिक घातक, जीवाणु रोग है। भैंस, भेड़ और बकरी भी इस बीमारी से प्रभावित होते हैं। इस बीमारी से अत्याधिक प्रभावित 6-24 उम्र के युवा पशु होते है। यह बीमारी आमतौर पर बारिश के मौसम में होती हैं।
लक्षण - बुखार भूख की कमी शारीरिक कमजोरी नाड़ी और हृदय गति का तेज हो जाना सांस लेने में परेशानी होना।
उपचार - यदि रोग की प्रारंभिक अवस्था में इसको नियंत्रित किया जाये तो इसका उपचार प्रभावी होता है। उपचार और रोकथाम के लिए विभाग के नजदीकी पशुपालन अधिकारी या पशुपालन केंद्र में संपर्क करें।
4.गलाघोंटू : इस रोग में पशु को अचानक तेज बुखार हो जाता है और पशु कांपने लगता है। रोगी पशु सुस्त हो जाता है और खाना-पीना कम कर देता है। पशु की आंखें लाल हो जाती हैं। पीडि़त पशु के मुंह से ढेर सारा लार निकलता है। गर्दन में सूजन के कारण सांस लेने के दौरान घर्र-घर्र की आवाज आती है और अंतत: 12-24 घंटे में मौत हो जाती है। पशु के पेट में दर्द होता है, वह जमीन पर गिर जाता है और उसके मुंह से लार भी गिरने लगती है। लक्षण के साथ ही इलाज न शुरू होने पर एक-दो दिन में पशु मर जाता है। इसमें मौत की दर 80 फ ीसदी से अधिक है। शुरुआत तेज बुखार (105-107 डिग्री) से होती है। रोग से मरे पशु को
रोकथाम:- प्रति वर्ष वर्षा ऋतु से पूर्व इस रोग का टीका पशुओं को अवश्य लगवा लेना चाहिए। बीमार पशु को दूसरे स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए। जिस स्थान पर पशु मरा हो उसे कीटाणुनाशक दवाइयों, फिनाइल या चूने के घोल से धोना चाहिये। पशु आवास को स्वच्छ रखें और रोग की संभावना होने पर तुरन्त पशु चिकित्सक से सम्पर्क कर सलाह लेवें।