खुला पशुओं पर बने ठोस नीति

नई दिल्ली 29-Jul-2024 04:47 PM

खुला पशुओं पर बने ठोस नीति (सभी तस्वीरें- हलधर)

खुला पशुओं पर बने ठोस नीति
डॉ चंद्रप्रकाश शर्मा वर्तमान में पशु चिकित्सालय संजय नगर में पशुचिकित्सा अधिकारी के पद पर कार्यरत है। डॉ चंद्रप्रकाश शर्मा मूलत: नीम का थाना के ही निवासी है। इन्होंने बीवीएससी एंड एच वेटरनरी कॉलेज बीकानेर से वर्ष 2009 में उत्तीर्ण की। पशुपालन विभाग में प्रथम नियुक्ति 2012 में पशु चिकित्सा अधिकारी, पशु चिकित्सालय कुराबड़, उदयपुर में मिली। डॉ शर्मा पशु पोषण के विशेषज्ञ है और अनेकों पशु पालन गोष्ठियों में पशु पोषण के बारे में जानकारी देते रहते हैं।

राजस्थान में मानसून आते ही खरीफ की फसलों की बुवाई का कार्य शुरू हो चुका हैं। थार मरुस्थल में बसे राजस्थान के ज्यादातर भू भाग में पानी के कमी के कारण सभी क्षेत्रों में रबी की फसल पैदा नही की जाती परंतु खरीफ की फसलें पूरे राजस्थान में ली जाती हैं। किसान बुवाई तो कर रहा है पर उसके माथे पर चिंता की लकीरें अभी से उभर आई हैं। मानसून की अनिश्चितता, बीज-खाद के महंगे दाम, बिचोलियों की बेईमानी से इतर एक नई समस्या है जिससे किसान सर्वाधिक परेशान है वो है आवारा पशुओं के झुण्ड। जो अभी से खेतों का चक्कर लगाना शुरू कर चुके हैं। किसानों के पास महंगे बीज-खाद की खरीद के बाद इतनी रकम नही हैं कि वो पूरी जमीन की तारबंदी कर सके और भी ये महंगा भी तो प?ता हैं। ये आवारा पशु कृषि को तो उजा? ही रहे हैं साथ मे यातायात व्यवस्था को भी बिगा? देते हैं। आपको बीच स?क में आवारा पशुओं के झुण्ड बैठें हुए मिल जायेंगे। हम सबको पता है कि आये दिन आवारा पशुओं के कारण कितनी दुर्घटनाये हो रही हैं। इस समस्या की ज? पर गौर करे तो ये सब इसलिए हैं कि आवारा पशु अर्थात गायों को धार्मिक मान्यताओं के कारण आगे बेचने में दिक्कतें आती हैं। हमारी धार्मिक मान्यताओं के कारण आवारा पशुओं के लिए 'स्लॉटर पॉलिसी' नही बन सकती हैं, इसलिए कृषि और पशुपालन विशेषज्ञों की ये जिम्मेदारी बनती हैं कि वो कुछ उपाय करे।
पशुपालन विशेषज्ञ जो उपाय सुझा सकते हैं उसमें पहला और सबसे अहम हैं 

कुत्ते और सांड जैसे आवारा जानवर शहरों के लिए एक प्रमुख मुद्दा बन गए हैं। विशेष रूप से गाय और सांड अधिक चुनौतियों का सामना करते हैं। इनमें से अधिकांश गायें अवैध अथवा अपंजीकृत डेयरियों और मवेशियों के शेड के मालिकों द्वारा छोड़ दी जाती हैं। पशु की प्रजनन क्षमता का नुकसान, बुढ़ापा, दूध उत्पादन की समाप्ति, खूंखारपन बर्दाश्त करने में असमर्थता के कारण मालिकों द्वारा छोड़ दिए जाते हैं। दूध न देने वाले मवेशियों को और छोटे बछड़ों को मालिक बाहर जाने देते हैं । ताकि वे बाहरस खुले में चर सकें। घर का चारा बच जाए। मानव समाज के लिए आवारा जानवरों से संबंधित कई आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं स्वास्थ्य चिंताएं हैं। शहरों की सडकों पर घूमने वाले अधिकांश जानवर अस्वस्थ हैं, जिससे मनुष्यों और जानवरों दोनों के लिए स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं बढ़ रही हैं। हमारी धार्मिक मान्यताओं के कारण आवारा पशुओं के लिए स्लॉटर पॉलिसी नही बन सकती हैं। इस स्थिति में क्या बेहत्तर विकल्प हो सकता है, इस मुद्दे को लेकर हलधर टाइम्स की डॉ. चंद्रप्रकाश शर्मा से हुई वार्ता के मुख्याशं...

आवारा पशु क्या बड़ी बहस का हिस्सा बन गए है?
सामाजिक और राजनीतिक रूप से आवारा पशुओं का मुद्दा आज के समय बहुत बड़ी बहस का हिस्सा हो गया है। लेकिन इसके निवारण के लिए आज तक किसी संगठन और किसी सरकार ने कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया है। ये जानवर अक्सर यातायात प्रवाह को रोकते हैं जिसके परिणामस्वरूप अनावश्यक समय की बर्बादी होती है। अनेक सडक दुर्घटनाएं होती हैं। स्थिति और भी खराब तब हो जाती है ,जब ये पशु रात में स्वतंत्र रूप से सडकों पर घूमते हैं अथवा बैठ जाते हैं, वाहन चालकों के लिए अंधेरे के कारण अचानक पशु को स्पॉट करना मुश्किल हो जाता है। आवारा पशुओं के कारण हर वर्ष हज़ारों की संख्या में दुर्घटनाएं होती हैं और सैंकड़ों लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं और कई घायल हो जाते हैं।

इस समस्या से कैंसे निपटा जा सकता है?
इस समस्या का समाधान के लिए हम लिंगीकृत वीर्य के बारे में सोच सकते है। 
लिंगीकृत वीर्य ज्यादातर मादा पशु पैदा करने के लिए काम मे ली जाने वाली तकनीक हैं। इसमे वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग कर नर के वीर्य से ङ्घ धारित शुक्राणुओं का स्थिरीकरण करके, केवल ङ्ग धारित शुक्राणुओं को अलग कर लिया जाता हैं। मादा की अंडवाहिनी के वातावरण में भी परिवर्तन किया जाता है। कृत्रिम गर्भाधान करने पर केवल मादा पशु अर्थात बछडिया ही पैदा होती हैं। इसमे 80-90 फीसदी तक सटीक परिणाम प्राप्त होते हैं। परन्तु गर्भधारण दर सामान्य कृत्रिम गर्भाधान दर से 10 फीसदी तक कम होती हैं। लिंगीकृत वीर्य अभी 1500-2000 प्रति सीमन-स्ट्रॉ की दर से उपलब्ध हैं। 

इस वीर्य की उपलब्धता कितनी है?
पशुचिकित्सा विशेषज्ञ काफी लंबे समय से इस दिशा में प्रयास कर रहे है और उनका मानना हैं कि इस तकनीक से काफी हद तक आवारा पशुओं की समस्या हल हो सकती हैं। पहले हम लिंगीकृत वीर्य के लिए विदेशो पर ही आश्रित थे, और आयात करने के कारण ये महंगा पडता था, परंतु अब निजी कंपनियों के सहयोग से भारत मे भी उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड राज्यों के स्टेट लाइवस्टॉक बोर्ड ने उत्पादन शुरू कर दिया हैं। पुणे में एक निजी कंपनी की लैब से और उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड के स्टेट लाइवस्टॉक बोर्ड से लिंगीकृत वीर्य प्राप्त किया जा सकता हैं। अगर सरकार लिंगीकृत वीर्य पर अनुदान देकर इसकी दर 100 प्रति सीमन-स्ट्रॉ तक भी कर दे तो भी ये किसानों को अधिक भारी नही लगेगा और किसान इस दिशा में सोचेंगे।

इस तकनीक से कितने साल में आवारा पशुओं की समस्या कम हो जायेगी?
अगर सरकार अभी से प्रचार प्रसार और प्रयास शुरू करे तो लिंगीकृत वीर्य का प्रयोग करने से आगामी 5-7 वर्षो में ये समस्या काफी हद तक दूर हो सकती हैं। इसके पीछे तर्क ये हैं कि आवारा पशुओँ की उम्र 5-7 वर्ष से अधिक नही जा पाती हैं तब तक जो नया स्टॉक आएगा और वो मादा पशुओं का होगा। कोई किसान डेयरी चला रहा हैं तो उसको उसके पशु की अगली संतति मादा ही मिलेगी। जिससे उसको लाभ होगा। उत्कृष्ट नस्ल वाले पशुओँ की संख्या में बढोतरी होने से उत्पादन बढेगा।

गौशाला-नंदीशाला इस दिशा में कारगर नहीं है?
अभी जो आवारा पशुओं की समस्या हैं उसके तत्काल निदान के लिए गौशालाओ और नंदी शालाओ की स्थापना कर उनका मैनेजमेंट सही हाथों में दिया जाना चाहिए। वैज्ञानिक तकनीक का उपयोग करके गौपालन किया जाना चाहिए। अस्थायी बाँझपन से ग्रसित मादा पशुओँ का पशु-चिकित्सक से उपचार करवाकर उनको उत्पादन योग्य बनाया जाए। लिंगीकृत वीर्य का प्रयोग किया जाए। जिससे उत्कृष्ट नस्ल की प्रजनन योग्य पशु संख्या में वृद्धि होगी और उत्पादन बढेगा। व्यावसायिक प्रबंधन व्यवस्था अपनाकर गौ-उत्पादों की बिक्री की जा सकती हैं। पंचगव्य चिकित्सा और गौ-उत्पादों के आयुर्वेदिक महत्व का उचित प्रचार प्रसार कर इनका बाजार तैयार किया जा सकता हैं। गुणवत्तापूर्ण होने पर विदेशों में भी निर्यात किये जा सकते।


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