धान की फसल में जिंक का प्रबंधन (सभी तस्वीरें- हलधर)
वर्तमान में, विश्व में फैल रही कोरोना महामारी के प्रति बचाव हेतु शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता का मजबूत होना आवश्यक है। जिंक पोषक तत्व शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिंक पोषक तत्व के स्रोत के रूप में सभी प्रकार के अनाज, दाले, मूंगफली, दूध और अंडे का प्रयोग इस समय करना अति आवश्यक है। पौधो के पूर्ण विकास व वृद्धि के लिए 17 पोषक तत्वों की आवश्यक्ता होती है। यह सभी पोषक तत्व पौधे मृदा से प्राप्त करते हैं। सूक्ष्म पोषक तत्व पौधों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते है जिसमे जिंक सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जिंक की कमी से धान की फसल में खैरा रोग होता है। गौरतलब है कि धान उत्पादक किसान मध्य मई के बाद नर्सरी स्थापना की तैयारी शुरू कर देते है।
मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
जिंक का सीधा संबंध खाद्य- पोषण सुरक्षा से जुडा है। क्योंकि, जिंक फसल उत्पादन के साथ-साथ फसल की गुणवत्ता बढाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। स्वस्थ जीवन के लिए लोगों को पर्याप्त और संतुलित्त मात्रा में कार्बोहाइड्रैट्स, प्रोटीन, विटामिन्स और सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। जिंक किसी व्यक्ति के विकसित होने की प्रक्रिया में भी मदद करता है। गर्भवती महिलाओं और साथ ही साथ बढ़ते बच्चों के लिए एक आवश्यक खनिज होता है। इसीलिए, यदि आप भोजन में पर्याप्त मात्रा में जिंक पोषक तत्व प्राप्त नहीं कर रहे हैं तो इसके कारण स्वास्थ्य पर निम्न गंभीर दुष्प्रभाव पड़ सकते हैं -
मृदा में जिंक की स्थिति
जिंक की कमी लगभग सभी फसलों के लिए एक गंभीर समस्या हैं। भारतीय मृदाओं में 40-50 प्रतिशत जिंक पोषक तत्व की कमी देखी गई है। जो वर्तमान में भोजन की बढती मांग हेतु की जा रही सघन खेती से कमी ओर भी बढ सकतीं है। आमतौर पर अनाज फसलों की संकर किस्मों में आनुवाँशिक रूप से सूक्ष्म तत्वों की मात्रा कम होती है और सूक्ष्म तत्वों की कमी वाली मृदा में इन फसलों को उगाने से इनमें उक्त तत्वों की मात्रा और कम हो जाती है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि फसल उत्पादन में जिंक पोषक तत्व का उचित प्रबंधन करना चाहिए।
धान में जिंक की कमी के लक्षण
धान में जिंक की कमी के लक्षण सामान्य रूप से रोपाई के 2 से 4 हफ्ते बाद दिखाई पड़ते हैं। पत्तियों पर कत्थई अथवा कास्य रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। यह धब्बे आकार में बडे होकर संपूर्ण पत्ते में फैल जाते है। बाद में सभी पत्तियों में कांस्य धब्बे बन जाते हैं, इस दशा को खैरा रोग के नाम से जाना जाता है। नई पत्तियों में अन्त:शिरीय पर्ण हरिमाहीनता दिखाई देती है। जबकि , शिराओं से लगा भाग हरा ही रहता है। पर्व (इंटरनोड) छोटे और पत्तियाँ मुडी हुई होती है। जिंक की कमी से होने वाली पर्ण हरिमाहीनता लौहे की कमी के लक्षणों से मिलती है। परन्तु यह अन्तर आसानी से समझा जा सकता है । क्योकि, जिंक की कमी से पत्तियों के आधार भाग पर सफेद धब्बे से दिखते हैं। जबकि, लौहे की कमी से अन्त:शिरीय हरिमाहीनता पत्ती की पूरी लम्बाई में दिखाई देती है। कभी-कभी पौधों में जिंक तत्व की कमी होते हुये भी पौधे में कोई लक्षण दिखाई नहीं देते है। इस दशा को 'हिडन हंगर' के नाम से जाना जाता है। ऐसी अवस्था में पौधे में जिंक की खुराक नहीं देने से फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। जिंक की अत्यधिक कमी होने पर धान में कल्लों की संख्या कम होती है। पौधों की जड़ों की वृद्धि रूक जाती है। धान की बालियों में दाने नही बन पाते है। जिससे फसल उत्पादन में कम होता है।
मृदा में जिंक की उपलब्धता को कम करने वाले कारक
पराली जलाने से कार्बनिक पदार्थ की कमी से जिंक का कम होना। मृदा में फॉस्फोरस, मैंगनीज और लौह तत्वों की अधिक उपलब्धता होना। नाइट्रोजन पोषक तत्व का अधिक मात्रा मे प्रयोग करने से पौधों की जडों में जिंक-प्रोटीन जटिल का बनना। अधिक मृदा पीएच और सिचाईं जल का क्षारीय होना। मृदा में कैल्शियम कार्बोनेट की अधिकता होना। धान के खेत में लगातार पानी भरने से मृदा की ऑक्सी-अवकरण क्षमता कम हो जाती है। रेतीली मृदाओं में लवणीय अभिक्रिया के होने से जिंक की कमी सहज ही होती है।
जिंक उर्वरक प्रयोग मात्रा
जिंक का प्रयोग धान की रोपाई अथवा दूसरी फसलों की बुवाई के समय ही करना चाहिए। एक बार में 25 किग्रा. प्रति हैक्टयर जिंक सल्फेट प्रयोग करने से जिंक की कमी दूर करके फसल उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है। हालाँकि, धान-गेहूँ फसल चक्र में एक बार में 25 किग्रा. प्रति हैक्टर जिंक सल्फेट डालने के बाद दो वर्ष तक जिंक का प्रभाव रहता है। धान में जिंक का प्रयोग करने पर गेहूँ में जिंक का प्रयोग किये बिना ही पूरा उत्पादन मिल जाता है। विभिन्न प्रकार की मृदाओं में भी जिंक की संस्तुत मात्रा भिन्न होती है। कम कार्बनिक पदार्थ, उच्च पी.एच. मान, अधिक कैल्शियम कार्बोनेट वाली मृदाओं में जिंक की मात्रा का अधिक प्रयोग किया जाता है। इसके साथ बलुई मिट्टी की स्थिरीकरण क्षमता कम होने के कारण जिंक की कम मात्रा से जबकि चिकनी और क्षारीय भूमियों में अधिक मात्रा देकर ही फसलों का पूरा उत्पादन लिया जा सकता है।
जिंक प्रयोग विधि
यदि नियमित रूप से फसल बिजाई से पूर्व मिट्टी में 10-15 टन प्रति हैक्टयर की दर से सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग करें तो यह सभी सूक्ष्म तत्वों की पूर्ति करने में सक्षम होती है। सामान्यत: जिंक उर्वरकों का प्रयोग बुवाई के समय किया जाता है। बुवाई के समय जिंक का प्रयोग नहीं हो पाए तो बुवाई के 35-45 दिन बाद जिंक उर्वरकों का प्रयोग पर्णीय छिडकाव द्वारा किया जा सकता है। खड़ी फसल में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई देने पर 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट हेप्टाहाइड्रेट अथवा 0.35 प्रतिशत जिंक सल्फेट मोनोहाइड्रेट घोल का छिड़काव 7-10 दिन के अन्तराल पर तीन बार करने से इसकी कमी को सुधारा जा सकता है। जिंक ऑक्साइड के घोल में धान की पौध को डुबोकर उपचारित करके रोपाई की जा सकती है.