मिट्टी बिना खेत कैसे, खेत बिना भोजन ?

नई दिल्ली 17-Dec-2024 12:29 PM

मिट्टी बिना खेत कैसे, खेत बिना भोजन ?

(सभी तस्वीरें- हलधर)

मृदा के स्वास्थ्य में गिरावट के प्रमुख कारणों में गैर पारंपरिक कृषि, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक का अत्यधिक प्रयोग, जंगलों की अंधाधुंध कटाई, जलवायु परिवर्तन, मृदा की अपर्याप्त देखभाल और मृदा में पोषक तत्वों का असंतुलन शामिल हैं। इससे मृदा क्षरण की गंभीर चुनौति को बढ़ावा मिल रहा है। साथ ही, खाद्य सुरक्षा को भी खतरा पैदा हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के दौर में मिट्टी उर्वरता में गिरावट से उपज में कमी आ रही है। हरित क्रांति के माध्यम से बढ़ती जनसंख्या की खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कृषि में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए थे। जिनके कारण आज कृषि पद्धतियाँ पूरी तरह बदल चुकी हैं। पारंपरिक कृषि पद्धतियों में जैविक खाद और पशुधन का उपयोग होता था। लेकिन, पिछले कुछ दशकों से इन परंपरागत तरीकों की जगह रासायनिक उर्वरकों और आधुनिक कृषि तकनीकों ने ले ली। जिससे कृषि और भोजन दोनों की गुणवत्ता में बदलाव आया है। समय के साथ देसी बीजों की जगह हाइब्रिड बीजों ने ले ली है, जिनके लिए अधिक खाद और पानी की आवश्यकता होती है । जिससे मिट्टी के स्वास्थ्य में निरंतर गिरावट हो रही है। कृषि प्रधान देश में पहले जहाँ पशुधन ग्रामीण जीवन का अभिन्न हिस्सा था। वहीं अब गाँव पशु विहीन होते जा रहे हैं और यांत्रिक उपकरणों के अधिक उपयोग से मृदा में मौजूद जीवाणुओं की संख्या में भारी कमी आई है। आधुनिक कृषि के नाम पर मृदा का अत्यधिक शोषण हो रहा है । मृदा स्वास्थ्य में खनिज, नमी और आवश्यक सूक्ष्मजीव धीरे-धीरे घटते जा रहे हैं, जिसके कारण इसकी उत्पादकता घट रही है।  इस समस्या का समाधान आदिवासी समुदाय की पारंपरिक संस्कृति में ही निहित है, जो प्राचीन काल से प्रकृति के संरक्षक रहे हैं। वह अभी भी उन परंपराओं का पालन करते हैं, जिन्हें उनके पूर्वज अपने दैनिक जीवन में अपनाते थे। आदिवासी समुदाय अब भी मृदा को अपने लिए ईश्वर का वरदान मानते हैं। समुदाय अपनी चक्रीय जीवनशैली की परंपराओं में मृदा को अत्यधिक महत्व देते हैं। खेती, विवाह, जन्म अथवा मृत्यु आदि पर मृदा पूजा के बाद ही शुरुआत की जाती है। यह समुदाय मृदा को जीवनदायिनी मानते हैं और जितना वह मृदा से प्राप्त करते हैं, उतना ही उसे वापस लौटाने का प्रयास करते हैं। समुदाय पर्यावरण अनुकूल कृषि अपनाने के साथ ही पशुपालन भी करते हैं। पशुओं के लिए चारा मृदा से प्राप्त करते हैं और उसके बाद खाद के रूप में इसे खेत में वापस डालते हैं। जिससे मृदा में सूक्ष्मजीवों की वृद्धि होती है और मृदा का संरक्षण सुनिश्चित होता है। इस प्रकार मृदा का संरक्षण और उसकी उपजाऊ क्षमता बनी  रहती है । समुदाय चक्रीय जीवनशैली पर आधारित मिश्रित खेती का फसल चक्र अपनाता है। जिसमें एक से अधिक प्रकार की फ सल उगाई जाती हैं। उन्हें यह समझ है कि इस प्रकार के फसल चक्र से मृदा की उर्वरता बनी रहती है और वह खराब नहीं होती। इस पद्धती में देसी खाद और  बीजों का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, मिट्टी के कटाव को रोकने और मृदा में नमी बनाए रखने के लिए मेड बंदी जैसी पारंपरिक विधियाँ अपनाई जाती हैं। इस प्रक्रिया से खेत में पानी अधिक समय तक बना रहता है, मिट्टी का कटाव नहीं होता और मृदा की उर्वरता बनी रहती है। स्थानीय रूप से उपयुक्त स्वदेशी बीजों का संरक्षण कर उन्हें बुवाई के लिए पुन: उपयोग में लाया जाता है। खेत का अनाज अपने पड़ोसी किसानों को उधार दे कर अगली बुवाई में उसी अनाज को बीज के रूप में वापस प्राप्त करते हैं, जिससे बाजार से बीज खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस परंपरा से न केवल किसानों को आर्थिक लाभ होता है। बल्कि, स्वदेशी बीज मृदा की उर्वरता बनाए रखने में भी मदद करते हैं। परंपरागत कृषि प्रणाली अपनाने वाले किसानों की यह परंपरा खेत की उपजाऊपन को बनाए रखती है और मृदा को खराब होने से बचाती है। समुदायों के सांस्कृतिक रीति-रिवाजों में दलहनी फसलों का महत्वपूर्ण स्थान है। इष्ट देवता के भोग के लिए दलहनी फ सलों से बने व्यंजन तैयार किए जाते हैं। किसान अपने घर की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए खरीफ और रबी दोनों मौसमों में दलहनी फसलों की बुवाई सुनिश्चित करता है। इस प्रकार, दलहनी फसलों की खेती न केवल उनकी सांस्कृतिक परंपराओं का हिस्सा है। बल्कि, यह मृदा की उपजाऊता बढाने में सहायक होती है।
खाद्य प्रयोजनों के लिए जंगली फल, बीज, बल्ब, जड़ और कंद के रूप में संरक्षित पौधों की कटाई करते समय पर्यावरण संरक्षण के नियमों का पालन किया जाता है। जंगल से उतना ही उत्पाद लिया जाता है जितनी आवश्यकता होती है । इससे पर्यावरण को नुकसान कम होता है। पर्यावरण की रक्षा के लिए वे निरंतर प्रयासरत रहते हैं और उनके लिए जंगल न केवल एक संसाधन है। बल्कि, पूजनीय और आराध्य स्थान भी हैए जहाँ सभी शुभ कार्य जंगल की पूजा से प्रारंभ होते हैं। समुदाय जैविक अपशिष्टों और फसल अवशेषों का पुनर्चक्रण करके मिट्टी की उर्वरता बनाए रखते हैं। देशी पशुओं की रक्षा करना भी उनकी प्राथमिकता है। चराई और खेती के बीच एक मौसमी चक्र अपनाकर, वे चरागाहों का संतुलित उपयोग सुनिश्चित करते हैं। ताकि, पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान न पहुंचे।
अंतत: यह स्पष्ट है कि मृदा का स्वास्थ्य केवल हमारे भोजन और कृषि उत्पादों की गुणवत्ता पर ही नही। बल्कि समग्र पारिस्थितिकी तंत्र और जलवायु संतुलन पर भी गहरा प्रभाव डालता है। अब जब मृदा क्षरण और पोषक तत्वों के असंतुलन जैसी समस्याएँ गंभीर रूप धारण कर चुकी हैं। हमें अपने पारंपरिक ज्ञान और स्थानीय उपायों को पुन: बढाने की आवश्यकता है। आदिवासी समुदायों द्वारा अपनाए गए सुदृढ़ और समय परीक्षणित कृषि पद्धतियाँ, जैसे देसी बीजों का संरक्षण, फसल चक्र, पर्यावरण अनुकूल कृषि का प्रयोग और मृदा की देखभाल के परंपरागत तरीके, न केवल मृदा के स्वास्थ्य को बनाए रखते हैं। बल्कि, यह हमारे पर्यावरण को भी सुरक्षित रखने में सहायक हैं। इन सामुदायिक परंपराओं के पुनरुत्थान और प्रोत्साहन से मृदा संकट का समाधान पा सकते हैं । 
नगेंद्र सिंह खंगारोत, वाग्धारा, बांसवाडा 


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