दुधारू पशुओं में रोग प्रबंधन

नई दिल्ली 28-May-2024 11:37 AM

दुधारू पशुओं में रोग प्रबंधन (सभी तस्वीरें- हलधर)

दुधारू पशुओं में अनेक कारणों से बहुत सी बीमारियाँ होती है। सूक्ष्म विषाणु, जीवाणु, फफूंदी, अंत: -बाह्य परजीवी, प्रोटोजोआ, कुपोषण और शरीर के अंदर की चयापचय (मेटाबोलिज्म) क्रिया में विकार आदि प्रमुख कारणों में है। इन बीमारियों में बहुत सी जानलेवा बीमारियां है। कई बीमारियाँ पशु के उत्पादन पर कुप्रभाव डालती है। कछ बीमारियां एक पशु से दूसरे पशु को लग जाती है जैसे मुह और खुर की बीमारी, गल घोंटू, आदि, छूतदार रोग हैं। कुछ बीमारियाँ पशुओं से मनुष्यों में भी आ जाती है जैसे रेबीज, क्षय रोग आदि। इन्हें जुनोटिक रोग कहते हैं। अत: पशु पालक भाइयों को प्रमुख बीमारियों के बारे में जानकारी रखना आवश्यक है। ताकि, आप समय पर उचित कदम उठा कर अपना आर्थिक हानि से बचाव और मानव स्वास्थ्य की रक्षा में भी सहयोग कर सके।

 

खुर-मुंहपका

यह सूक्ष्म विषाणु (वायरस) से पैदा होने वाली बीमारी है। यह बहुत तेजी से फैलने वाला रोग है। गाय, भैंस, भेड़,  ऊंट, सुअर आदि पशुओं के साथ-साथ विदेशी और संकर नस्ल की गायों में यह बीमारी अधिक होती है। इस रोग से ग्रस्त पशु ठीक होकर अत्यन्त कमजोर हो जाते हैं। दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन बहुत कम हो जाता है और बैल काफी समय तक कार्य  करने योग्य नहीं रहते। पशु शरीर पर बालों का कवर खुरदरा और खुर कुरूप हो जाते हैं।

रोग के लक्षण

रोग ग्रस्त पशु को 104-106 डि. फारेनहायट तक बुखार हो जाता है। तेज बुखार के बाद पशु के मुंह के अंदर,गालों,जीभ,होंठ तालू और मसूड़ों के अंदर, खुरों के बीच और कभी-कभी थनों और आयन पर छाले पड़ जाते हैं। यह छाले फटने के बाद घाव का रूप ले लेते हैं। जिससे पशु को दर्द होने लगता है। मुंह में घाव और दर्द के कारण पशु खाना-पीना बन्द कर देते हैं। जिससे वह बहुत कमजोर हो जाता है। दर्द के कारण पशु लंगड़ा कर चलने लगता है। गर्भवती मादा में कई बार गर्भपात भी हो जाता है।  नवजात बछडे /बछडियां बिना किसी प्रकार के लक्षण दिखाए मर जाते है। लापरवाही होने पर पशु के खुरों में कीडे पड़ जाते हैं। कई बार खुरों के कवच भी निकल जाते हैं।

उपचार : इस रोग का कोई निश्चित उपचार नहीं है। लेकिन, बीमारी की गम्भीरता को कम करने के लिए लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार किया जाता है। रोगी पशु में सेकैन्डरी संक्रमण को रोकने के लिए उसे पशु चिकित्सक की सलाह पर एंटीबायोटिक के टीके लगाए जाते हैं। मुंह- खुरों के घावों को फिटकरी अथवा पोटाश के पानी से धोते हैं। मुंह में बोरो-गिलिसरीन और खुरों में किसी एंटीसेप्टिक लोशन अथवा क्रीम का प्रयोग किया जा सकता है।

रोग से बचाव

इस बीमारी से बचाव के लिए पशुओं को पोलीवेलेंट वेक्सीन का वर्ष में दो बार टीके अवश्य लगवाने चाहिए। बछडे/बछडियों में पहला टीका 1 माह की आयु में, दूसरे तीसरे माह की आयु और तीसरा 6 माह की उम्र में और उसके बाद नियमित सारिणी के अनुसार टीकाकरण कराया जाना चाहिए। बीमारी हो जाने पर रोग ग्रस्त पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए। बीमार पशुओं की देख-भाल करने वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ पशुओं के बाडे से दूर रहना चाहिए। बीमार पशुओं के आवागमन पर रोक लगा देना चाहिए। रोग से प्रभावित क्षेत्र से पशु नहीं खरीदना चाहिए। पशुशाला को साफ-सुथरा रखना चाहिए। इस बीमारी से मरे पशु के शव को खुला न छो?कर गाड़ देना चाहिए

पशु प्लेग (रिंन्डरपेस्ट)

यह रोग भी एक विषाणु से पैदा वला छूतदार रोग है जोकि जुगाली करने वाले लगभग सभी पशुओं को होता है। इनमें पशु को तीव्र दस्त अथवा पेचिस लग जाती हैं। यह रोग स्वस्थ पशु को रोगी पशु के सीधे संपर्क में आने से फैलता है। इसमें पशु को तेज बुखार हो जाता है और पशु बेचैन हो जाता है। दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है और पशु की आँखें सुर्ख लाल हो जाती है। इस बीमारी में पशु की 3-9 दिनों में मृत्यु हो जाती है।

पशुओं में पागलपन (रेबीज)

इस रोग को पैदा करने वाले सूक्ष्म विषाणु  कुत्ते, बिल्ली,बंदर, गीदड़, लोमड़ी अथवा नेवले के काटने से स्वस्थ पशु के शरीर में प्रवेश करते हैं। नाडियों के द्वारा मस्तिष्क में पहुंच कर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं। रोग ग्रस्त पशु की लार में यह विषाणु बहुतायत में होता है और रोगी पशु द्वारा दूसरे पशु को काट लेने से अथवा शरीर में पहले से मौजूद किसी घाव के ऊपर रोगी की लार लग जाने से यह बीमारी फैल सकती है। यह बीमारी रोग ग्रस्त पशुओं से मनुष्यों में भी आ सकती है। अत: इस बीमारी का जन स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत महत्व है।

लक्षण

कुत्तों में इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है। उनकी आंखे अधिक तेज नजर आती हैं। कभी-कभी शरीर का तापमान भी बढ़ जाता है। 2-3 दिन के बाद उसकी बेचैनी बढ़ जाती है। बिना प्रयोजन के इधर-उधर काफी तेजी से दौडऩे लगता हैं। काटना शुरू कर देता है। अन्तिम अवस्था में पशु के गले में लकवा हो जाने के कारण उसकी आवाज बदल जाती है। गाय-भैंसों में इस बीमारी से काफी उत्तेजित अवस्था में दिखते है। वह रम्भाने लगता है। वह अपने सिर को किसी पेड़ अथवा दीवाल सेे साथ टकराता है।

रोकथाम

पालतू कुत्तों को इस बीमारी से बचाने के लिए नियमित रूप से टीके लगवाने चाहिए तथा आवारा कुत्तों को समाप्त के देने चाहिए। पालतू कुत्तों का पंजीकरण स्थानीय संस्थाओं द्वारा करवाना चाहिए और उनके नियमित टीकाकरण का दायित्व पशु मालिक को निभाना चाहिए।

गलघोंटू (एच.एस.)

 गाय-भैंसों में होने वाला एक बहुत ही घातक और छूतदार रोग है। यह अधिकतर बरसात के मौसम में होता है यह गोपशुओं की अपेक्षा भैंसों में अधिक पाया जाता है। यह रोग बहुत तेजी से फैलकर बड़ी संख्या मे पशुओं को अपनी चपेट में लेकर उनकी मौत का कारण बन जाता हैं  इस रोग के प्रमुख लक्षणों में तेज बुखार, गले में सूजन, सांस लेने में तकलीफ  और सांस लेते समय तेज आवाज होना आदि शामिल है। कईं बार बिना किसी स्पष्ट लक्षणों के ही पशु की अचानक मृत्यु हो जाती है।

उपचार : इस रोग की रोकथाम के लिए रोगनिरोधक टीके लगाए जाते हैं। पहला टीका 3 माह की आयु में दूसरा 9 माह की अवस्था में और इसके बाद हर साल यह टीका लगाया जाता हैं। यह टीके पशु चिकित्सा संस्थानों में नि:शुल्क लगाए जाते हैं।

लंगडी बुखार

जीवाणुओं से फैलने वाला यह रोग गाय व भैंसों दोनों को होता है।  इस रोग में पशु के पिछली अथवा अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती हैं जिससे पशु लंगड़ा कर चलने लगता है अथवा फिर बैठ जाता है। पशु को तेज बुखार हो जाता है। सूजन वाले स्थान को दबाने पर कड़-कड़ की आवाज आती है।

उपचार : उपचार के लिए पशु को ऊँची डोज में प्रोकें पेनिसिलीन के टीके लगाए जाते हैं। सूजन वाले स्थान पर भी इसी दवा को सुई द्वारा माँस में डाला जाता है। इस बीमारी से बचाव के लिए पशु चिकित्सक संस्थाओं में रोग निरोधक टीके नि:शुल्क लगाए जाते है। अत:पशु पालकों को इस सुविधा का अवश्य लाभ उठाना।

ब्रूसेलोसिस

जीवाणु जनित इस रोग में गौ पशुओं और भैंसों में गर्भवस्था के अन्तिम त्रैमास में गर्भपात हो जाता है। यह रोग पशुओं से मनुष्यों में भी आ सकाता है। मनुष्यों में यह उतार-चढ़ाव वाला बुखार (अज्युलेण्ट फीवर) नामक बीमारी पैदा करता है। पशुओं में गर्भपात से पहले योनि से अपारदर्शी पदार्थ निकलता है। गर्भपात के बाद पशु की जेर रुक जाती है। इसके अतिरिक्त यह जोड़ों में आर्थ्रायटिस (जोड़ों की सूजन) पैदा के सकता है।

उपचार : अब तक इस रोग का कोई प्रभावी इलाज नहीं हैं। यदि क्षेत्र में इस रोग के 5 प्रतिशत से अधिक पोजिटिव केस हों तो रोग की रोकथाम के लिए बछडियों में 3-6 माह की आयु में ब्रूसेल्ला-अबोर्टस स्ट्रेन-19 के टीके लगाए जा सकते हैं। पशुओं में प्रजनन की कृत्रिम गर्भाधान पद्धति अपना कर भी इस रोग से बचा जा सकता है।

टिक फीवर (पेशाब में खून आना)

यह बीमारी पशुओं में एक कोशिकीय जीव प्रोटोजोआ से होती है। बबेसिया प्रजाति के प्रोटोजोआ पशुओं के रक्त में चिचडियों के माध्यम से प्रवेश के जाते हैं । जिसके फलस्वरूप लाल रक्त कोशिकायें नष्ट होने लगती हैं। लाल रक्त कोशिकाओं में मौजूद हीमोग्लोबिन पेशाब के द्वारा शरीर से बाहर निकलने लगता है। जिससे पेशाब का रंग कॉफी के रंग का हो जाता है। कभी-कभी उसे खून वाले दस्त भी लग जाते हैं। इसमें पशु खून की कमी हो जाने से बहुत कमजोर हो जाता है। पशु में पीलिया के लक्षण भी दिखायी देने लगते हैं और समय पर इलाज ना कराया जाय तो पशु की मृत्यु हो जाती है।

उपचार : इसमें बिरेनिल के टीके पशु के भार के अनुसार मांस में दिए जाते हैं और खून बढाने वाली दवाओं का प्रयोग किया जाता हैं।

बाह्य- अंत: परजीवी

पशुओं के शरीर पर बाह्य परजीवी जैसे कि जुएं,पिस्सु अथवा चिचडी आदि प्रकोप होने पर वह पशुओं का खून चूसते हैं। जिससे पशु कमजोर हो जाते हैं। इन पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता घट जाती है।  पशुओं की पाचन नली में भी अनेक प्रकार के परजीवी पाए जाते हैं जिन्हें अंत: परजीवी कहते हैं।  यह पशु के पेट, आंतों, यकृत उसके खून और खुराक पर निर्वाह करते हैं

उपचार : पशु गोबर के नमूनों का पशु चिकित्सालय में परीक्षण करना चाहिए। परजीवी के अंडे गोबर के नमूनों में देखकर पशु को उचित दवा दी जाती है जिससे परजीवी नष्ट हो जाते हैं।


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