बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों में खेल रहे है कुलपति?

नई दिल्ली 02-Oct-2024 12:48 PM

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों में खेल रहे है कुलपति?

(सभी तस्वीरें- हलधर)


जयपुर। कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर के अस्थाई कुलपति बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों में खेल रहे है। कुलपति के मनमाने फै सले पर जीरे की नई किस्म विकास पर ब्रेक लग गया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि कुलपति बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के लिए कृषि वैज्ञानिकों की मेहनत को मटियामेट करने पर तुले है। शायद यही कारण है कि विश्वविद्यालय के अस्थाई कु लपति ने जीरा फसल पर रिसर्च कर रहे कृषि वैज्ञानिको का कही दूसरी जगह तबादला कर दिया है। ऐसे में प्रदेश के जीरा उत्पादक किसानों को मिलने वाली सौगात छीनने का डर है। कुछ ऐसे ही आरोप भारतीय किसान संघ, जोधपुर प्रांत के पदाधिकारियों ने विश्वविद्यालय के अस्थाई कुलपति पर लगाए है। कुलपति को हटाने और जीरा रिसर्च जारी रखने की मांग को लेकर संघ ने जिला कलक्टर को राज्यपाल और मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन सौंपा है। संघ ने प्रेषित ज्ञापन में कहा कि जब से विश्वविद्यालय में अस्थाई कुलपति नियुक्त हुआ है। तब से विश्वविद्यालय के कार्मिक कु लपति की कुनीतियों को शिकार हो रहे है। जबकि, मेवाड़ संभाग के किसान सालों से नई कीट-रोग प्रतिरोधी जीरा किस्म का इंतजार कर रहे है। संघ ने कुलपति के द्वारा विश्वविद्यायल रिसर्च के साथ-साथ उपलब्ध संसाधनों को भी नुकसान पहुंचाने का आरोप कुलपति पर लगाया है। गौरतलब है कि प्रदेश में जीरे की खेती वर्ष 2004 में गुजरात के कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित किस्म पर निर्भर होकर रह गई है। यानी दो दशक बाद भी कृषि वैज्ञानिक जीरा की नई किस्म का विकास नहीं कर पाएं है। जबकि, जीरा सहित दूसरी मसाला फसलों के रिसर्च के लिए राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केन्द्र, अजमेर है। वहीं, एआईसीआरपी परियोजना के तहत श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, जोबनेर में मसला फसलों पर रिसर्च किया जा रहा है। लेकिन, जीरा किस्म विकास के मामले में दोनों ही संस्थान किसानों के साथ-साथ सरकार के लिए सफेद हाथी साबित हो रहे है। गौरतलब है कि भारत में उत्पादित 70 फीसदी जीरा मारवाड में होता है। हर साल करीब 5-7 लाख हैक्टयर क्षेत्र में किसान जीरे की बुवाई करते है। 
रिसर्च हुआ प्रभावित
संघ ने अपने ज्ञापन में कहा कि कुलपति के द्वारा जीरे की रिसर्च कर रहे कृषि वैज्ञानिक का अकारण तबादला करके रिसर्च की कमर तोड़ दी है। साथ ही, किसानों को सपने को भी चकनाचूर कर दिया है। ज्ञापन में संबंधित कृषि वैज्ञानिक का तबादला निरस्त करने की मांग की है। वहीं, इस मामले को लेकर विश्वविद्यालय सूत्रों का कहना है कि संबंधित वैज्ञानिक ने कौन-कौन से जर्मप्लाज्म का उपयोग करते हुए जीरा किस्म विकास तक पहुंचा था। इस बात की जानकारी एक-दूसरे से साझा करना बड़ी टेढ़ी खीर है। 
रिसर्च में सफेद हाथी
प्रदेश में मसाला फसलो की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए आईसीएआर ने राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की थी। लेकिन, अनुसंधान से लेकर अब तक यह केन्द्र जीरे की एक भी किस्म का विकास नहीं कर पाया है। केन्द्र की वेबपोर्टल पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक केन्द्र के द्वारा कुल 19 किस्मों का विकास किया गया। इसमें धनिया की दो, मैथी की चार, सौंफ की दो, कलौजी की दो और अजवायन की तीन किस्मों का विकास किया है। सूत्र बताते है कि प्रदेश मेें जीरा बुवाई का 70 फीसदी क्षेत्रफल जोधपुर कृषि विश्वविद्यायल के अन्तर्गत आता है। लेकिन, आईसीएआर ने एआईसीआरपी परियोजना  का दायित्व वर्ष 1975 में कृषि विश्वविद्यायल जोबनेर का सौंपा हुआ है। इस विश्वविद्यालय द्वारा विकसित आरजेड़-19, 209, 223, 341 और आरजेड़-345 किस्म किसानों के बीच अब लोकप्रिय नहीं है। क्योंकि, इन जीरा किस्मों के विकास को कई साल हो चुके है। जबकि, परियोजना पर कथित तौर पर सालाना लाखों रूपए का बजट खर्च हो रहा है। जोबनेर कृषि के अंतर्गत जयपुर, अजमेर, टोंक, दौसा, धौलपुर, करौली, अलवर, सीकर आदि जिलें आते है। इन जिलों में केवल अजमेर को छोड़कर किसी में भी जीरे की खेती नहीं होती है। ऐसे में आईसीएआर के साथ-साथ राज्य सरकार को भी परियोजना की समीक्षा करने की जरूरत है। गौरतलब है कि एआईसीआरपी परियोजना के लिए 40 फीसदी बजट राज्य सरकार विश्विद्यालय को उपलब्ध कराती है। 
जीसी-4 की क्यों
जीरे का जीसी 4 (गुजरात जीरा 4) किस्म का बीज आने के बाद स्थितियां बदल गई। इसमें उखटा और झुलसा रोग का कम प्रकोप होता है। इस किस्म प्रति हैक्टयर 8 से 10 क्विंटल तक पैदावार भी देती है। साथ ही, 120 दिन में तैयार हो जाती है। यही कारण है कि बुवाई का रकबा लगातार बढ रहा है।
जोबनेर का हिस्सा 1.61 प्रतिशत
प्रदेश का जीरा रिसर्च सेंटर होने के बावजूद जोबनेर कृषि विश्वविद्यालय का हिस्सा क्षेत्रफल 1.61 प्रतिशत है। जबकि, जोधपुर कृषि विश्वविद्यालय की भागीदारी 67.57 प्रतिशत है। गौरतलब है कि जोधपुर कृषि विश्वविद्यालय  के अंतर्गत जोधपुर, नागौर, बाड़मेर, पाली व सिरोही-जालोर जिलें आते है। 
सात साल से रिसर्च जारी
संघ ने ज्ञापन में कहा कि जोधपुर कृषि विश्वविद्यालय में पिछले सात साल से जीरा किस्म विकास के लिए रिसर्च कार्य चल रहा है। उम्मीद थी कि एक-दो माह के भीतर किसानों के लिए जीरे की नई किस्म उपलब्ध हो जाती। लेकिन, कार्मिकों का तबादला करके विश्वविद्यालय के अस्थाई कु लपति ने किसानो की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। वहीं, राजस्थान से एक बड़ी उपलब्धि छीन ली है। गौरतलब है कि विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति स्व. बीआर चौधरी के समय विश्वविद्यालय ने जीरा किस्म विकास के लिए राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केन्द्र, अजमेर से एक एमओयू हस्ताक्षर किया था। 

अस्थाई कुलपति के निर्णय से बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों को फायदा पहुचेगा। कुलपति  परम्परा के विरुद्ध विश्वविद्यालय कार्मिकों के साथ जीरा सहित दूसरे अनुसंधान में लगे वैज्ञानिकों का अन्य गतिविधियों में स्थानांतरण कर रहे है। जबकि, पश्चिमी राजस्थान के किसानों को दो दशक से स्थानीय जलवायु में भरपूर पैदावार देने वाली जीरा किस्म के इंतजार में है। 
तुलछाराम सिंवर, प्रदेशमंत्री, भारतीय किसान संघ, जोधपुर

इस मामले को लेकर विश्वविद्यालय के अस्थाई कु लपति से उनके मोबाइल नम्बर पर सम्पर्क किया गया। लेकिन, उपलब्ध नहीं हो पाएं। मोबाइल संदेश का भी समाचार लिखे जाने तक कोई जवाब कुलपति ने नहीं दिया।


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