चित्तौड़ लोकल को ग्लोबल बनाने की तैयारी
(सभी तस्वीरें- हलधर)सीताफल किस्म: सेंटर ऑफ एक्सीलेंस-सीताफल पर जारी है कई किस्मों पर रिसर्च
पीयूष शर्मा
जयपुर। चितौडग़ढ़, प्रतापगढ़, उदयपुर, राजसमंद जिलें के पहाड़ो पर स्वत: ही फल-फूल रहे सीताफल को अब ग्लोबल बनाने की तैयारी चल रही है। यह तैयारी कृषि विश्वविद्यायल स्तर पर नहीं, बल्कि, सीताफल उत्कृष्टता केन्द्र के द्वारा की जा रही है। सेंटर के अधिकारियों का कहना है कि सीताफल की लोकल किस्मों के कई जर्मप्लाज्म संग्रहित किए है। साथ ही, दूसरे राज्योंं में पैदा होने वाली सीताफल किस्मों का भी स्थानीय जलवायु में परीक्षण किया जा रहा है। ताकि, इनके संकरण से सीताफल की कोई नई किस्म प्रदेश के किसानों के लिए विकसित की जा सके। जिसका फल आकार में ना केवल बड़ा हो। बल्कि, ज्यादा पल्प देने वाला और लंबे परिवहन के लिए उपयुक्त हो। गौरतलब है कि सीताफल उत्कृष्टता के न्द्र, चित्तौडग़ढ़ पर सीताफल की तीन दर्जन के करीब किस्मों का परीक्षण किया जा रहा है। सेंटर के प्रभारी अधिकारी उपनिदेशक राजाराम सुखवाल ने बताया कि सीताफल की लाकल किस्म हर तरह से अच्छी है। लेकिन, इसमें पल्प की मात्रा थोड़ी कम है। वहीं, फल का आकार थोड़ा छोटा है। इसके चलते उत्पादक किसान इसका उपयोग नहीं कर पा रहे है। उन्होने बताया कि रिसर्च के जरिए हम चित्तौडग़ढ़ लोकल जर्मप्लाज्म को नई किस्म का विकास करके ग्लोबल बनाने की कोशिश कर रहे है। ताकि, मेवाड़ संंभाग के किसानों को ऐसी किफायती फसल मिल सके, जो कम लागत और बिना पानी के तैयार हो सके। गौरतलब है कि प्रदेश में 200 हैक्टयर क्षेत्र में सीताफल की खेती हो रही है। जबकि, पहाड़ों में स्वत: फलने-फूलने वाले सीताफल के पौधों का एरिया काफी ज्यादा है।
चित्तौडग़ढ़ लोकल ही क्यों
उन्होने बताया कि चित्तौडग़ढ़ लोकल जर्मप्लाज्म के फल सप्ताह भर तक खराब नहीं होते है। लंबे परिवहन के लिए उपयुक्त है। परिवहन के दौरान फलों पर दाग नहीं बनते है। लेकिन, इसका फल दूसरी किस्मों से थोड़ा छोटा है। इस कारण पल्प की मात्रा भी कम है। उन्होने बताया कि इस किस्म का दूसरी किस्मों से संकरण करवाकर परीक्षण किया जा रहा है। ताकि, फ्रूट साइज और पल्प की मात्रा को बढ़ाया जा सके। लोकल किस्म में एक पौधें पर औसतन 10-12 फल लगते है। औसत वजन 300-400 ग्राम तक होता है।
बढ़ है पौधों की मांग
उन्होंने बताया कि सीताफल ऐसा पौधा है, जिसको जानवर नुकसान नहीं पहुंचाते है। रोपाई के तीसरे साल से उत्पादन मिलना शुरू हो जाता है। वहीं, मौसमी कारकों का भी ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता है। इसके पौधें में रोग-कीट का प्रकोप भी दूसरी बागवानी फसलो की तुलना में काफी कम होता है। औषधीय गुण रखने वाले सीताफल की खेती कंकरीली, पथरीली जमीन में बिना किसी देखरेख के आसानी से की जा सकती है। गौरतलब है कि एक हैक्टयर क्षेत्र से किसानों को लाख से डेढ़ लाख रूपए की शुरूआती आय मिल जाती है। इसके बाद पौधे की उम्र के हिसाब से फलों का उत्पादन बढ़ता है तो आय का आंकड़ा भी बढ़ता रहता है। गौतरलब है कि सेंटर के द्वारा राज्य के लिए पहचान की गई सीताफल किस्मों के पौधें किसानों को उपलब्ध कराएं जा रहे है। उन्होंने बताया कि इस साल 15 हजार पौधें सेंटर की नर्सरी में तैयार किए है।
प्रदेश के लिए 3 किस्मों की पहचान
उन्होंने बताया कि अब तक के परीक्षण में प्रदेश के किसानों के लिए सीताफल की तीन किस्मों की पहचान हो चुकी है। इनमें एनएमके-1 (सुपर गोल्डन), बालानगर और सरस्वती-7 शामिल है।
सुपर गोल्डन: उन्होंने बताया कि सुपर गोल्डन किस्म व्यवसायिक खेती केलिए उपयुक्त है। इस किस्म के एक पौधें से 25 फल मिल जाते है। बाद में हर साल 10 प्रतिशत की दर से उत्पादन में बढौत्तरी दर्ज होती रहती है। इसका एक फल 400-600 ग्राम वजनी होता है।
बालानगर: उन्होंने बताया कि यह किस्म स्वाद में दूसरी किस्मों से काफी बेहत्तर है। इसका फल भी 300-400 ग्राम वजनी होता है। कीपिंग क्वालिटी भी अच्छी है। इस किस्म की खेती भी यहां संभव है।
सरस्वती-7: उन्होने बताया कि इस किस्म की अधिकांश विशेषताएं सुपर गोल्डन के समान है। लेकिन, इसका फल तुड़ाई के 2-5 दिन बाद अंदर से पिलपिला होना शुरू हो जाता है।
इन किस्मों पर रिसर्च
उन्होने बताया कि सेंटर पर सीताफल की एएक्सडब्ल्यू, लाल सीताफल-1, हनुमान फल,
बालानगर, सरस्वती-7, रामफल, चांद सिडलिंग, एनएमके-3, एनएमके-1, समृद्धि-1, एपीके-1, राय दुर्ग, मेमाथ, चांद सिली, पिंक मेमाथ सहित तीन दर्जन करीब किस्मों पर परीक्षण किया जा रहा है।
यह है उपयोग
सीताफल के पल्प से कई उत्पाद तैयार किए जा रहे है। इनमें सीताफल टॉफी, आईसक्रीम, खीर, जेम, ज्यूस और सीताफल पाउडर सहित अन्य उत्पाद शामिल है। गौरतलब है कि सीताफल के बीजों में 30 फीसदी तेल पाया जाता है। इस कारण साबुन, पेस्ट सहित दवा निर्माण में भी इसका उपयोग होता है।