धड़ल्ले से फल-फूल रहा है ए-2 मिल्क काला कारोबार - एफ एसएसएआई ने जारी किए निर्देश
(सभी तस्वीरें- हलधर)आम पशुपालक के लिए आसान नहीं है जैविक दुग्ध का उत्पादन
पीयूष शर्मा
जयपुर। ए-2 मिल्क (जैविक दूध) उत्पादन के लिए देसी गाय होना ही काफी नहीं है। बल्कि, जैविक दुग्ध के लिए पशु के साथ-साथ चारागाह, प्रजनन प्रक्रिया, रोग प्रबंधन के तौर-तरीके और पशु आहार को भी जैविक बनाना होता है। शायद, यही कारण रहा है कि ए-2 मिल्क सहित दुग्ध प्रसंस्कृत उत्पादों के बढ रहे गोरखधंधे को लेकर सरकार को यूटर्न लेना पड़ा है। ए-2 मिल्क को लेकर एफ एसएसएआई ने ई-कॉमर्स सहित खाद्य कंपनियों को पैकेट से ए-वन और ए-2 प्रकार के दूध, दही समेत दूसरे उत्पादों के दावों को हटाने का निर्देश दिया। नियामक ने इस तरह के लेबल को भ्रामक बताया है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने कहा कि ये दावे खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियमए 2006 के अनुरूप नहीं हैं। गौरतलब है कि पहले ए-2 मिल्क के फायदे पशुधन वैज्ञानिकों तक सीमित थी। लेकिन, मोदी सरकार -1 के समय ए-2 मिल्क की ऐेसी बयार चली कि अब हर कोई अपने यहां उत्पादित दुग्ध को ए-2 बनाकर बिक्री कर रहा है। हालात यह है कि बड़े शहरों में राठी, थारपारकर, कांकरेज, गिर, सहीवाल सहित दूसरी देसी गायों का दुग्ध 100-150 रूपए प्रति लीटर तक बिक्री हो रहा है। वहीं, घी की मनमानी कीमत वसूली जा रही है। देसी गाय का घी 2200-4500 रूपए प्रति किलो के भाव से बिक्री हो रहा है। लेकिन, इसका लाभ पशुपालकों को नहीं मिल पा रहा है। जानकारी के मुताबिक शहरों मेें जैविक के रिटेल खोलकर बैठने वाले किसानों और पशुपालकों से 600-700 रूपए प्रति किलो के भाव से घी और 25-30 रूपए प्रति लीटर की दर से दुग्ध की खरीद करके फिर अपने लेबल के साथ ऊंची कीमत पर बिक्री कर रहे है। ऐसे में जैविक खाद्य के जैसे ही दुग्ध में भी गफलत की स्थिति पैदा हो चुकी है। इसके अलावा देसी गौ नस्लों के भाव आसमान छूने लगे है। सबसे ज्यादा भाव गिर नस्ल की गाय के बोले जा रहे है। इस कारण लघु और सीमांत किसानों के लिए उन्नत नस्ल की गायों का पालन करना भी महंगा सौदा बन चुका है। पशुधन विशेषज्ञो का कहना है कि सरकार को ए-2 लेबल के साथ दुग्ध सहित दूसरे प्रसंस्कृत उत्पाद बिक्री करने वालों के खिलाफ जांच अभियान चलाना चाहिए। ताकि, ए-2 की सच्चाई उपभोक्ताओं के सामने आ सके। उन्हें, पता चले कि जिस दुग्ध को वह ए-2 मानकर उपयोग कर रहे है, उसमें एंटीबायोटिक दवाओं के अवशेष भी शामिल है। पशु वैज्ञानियों के अनुसार एंटीबायोटिक दवाओं के दुग्ध में अवशेष की बात ठीक फसल में कीटनाशक छिड़काव के जैसी ही है। एंटीबायोटिक दवाओं में भी कीटनाशक की तरह विड्रोल पीरियड़ (प्रतीक्षा अवधि) लिखी होती है। लेकिन, नुकसान से बचने के चलते डेयरी उद्योग चलाने वाले दिशा-निर्देशो का पालन नहीं कर रहे है। इसके चलते दूध में विभिन्न तरह के अवशेष मिलने लगे है। गौरतलब है कि प्रदेश में एक भी डेयरी अथवा पशुपालक ऐसा नहीं है, जिसने ए-2 मिल्क के लिए सरकार को अपना पंजीयन करवाया हो।
6 महीने का समय
एफएसएसएआई ने कंपनियों को पहले से मुद्रित लेबल समाप्त करने के लिए छह महीने का समय दिया गया है। इसके अलावा कोई और इस समय सीमा में अतिरिक्त छूट नहीं दी जाएगी। नियामक ने इस निर्देश का सख्ती से पालन करने पर जोर दिया। नियामक ने कहा कि यह जरूरी है कि हम भ्रामक दावों को खत्म करें जो उपभोक्ताओं को गलत जानकारी दे सकते हैं। उन्होंने कहा कि ए-1 अथवा ए-2 दूध उत्पाद श्रेणी कभी अस्तित्व में नहीं थी और वैश्विक स्तर पर भी यह प्रवृत्ति खत्म हो रही है।
ए-1 और ए-2 में अंतर
ए-1 और ए-2 दूध में बीटा-कैसीन प्रोटीन की संरचना अलग-अलग होती है, जो गाय की नस्ल के आधार पर अलग-अलग होती है। गौरतलब है कि सरकार ने ए-1 और ए-2 का विकल्प पशुपालकों की आय बढाने के लिए दिया था। लेकिन, किसानों के मुनाफे को बिचौलियों डकार रहे है।
यह है ए-2 मिल्क (जैविक दूध)
यूरोपीय आयोग ने जैविक पशुधन उत्पादन प्रणाली के लिए मानक निर्धारित किये हैं। जानवरों के ऑफ ल्स अथवा दूसरे योजक, कृत्रिम उर्वरक अथवा कीटनाशक का उपयोग किए बिना 80 प्रतिशत चारा जैविक मानकों के अनुसार उगाया जाना चाहिये। जैविक दूध कीटनाशक, रासायनिक सामग्री से मुक्त, योजकों और स्वास्थ्य जोखिम से मुक्त होना चाहिये। सभी जानवरों का जन्म और पालन जैविक तरीके से किया गया हो। इसके लिए गायों को पूर्णतया जैविक चारा दिया जाये। चारे पर किसी रसायन का छिड़काव नहीं हो। गाय के खाद्य में कोई रसायन अथवा दवा नहीं हो।
एलोपैथी उपचार की संख्या
राजुवास बीकानेर की प्रो. बसंत कुमार बैंस ने बताया कि ए-2 मिल्क उत्पादन इतना आसान नहीं है। इसके लिए पशु के साथ-साथ चारा, चारागाह को भी जैविक बनाना होता है। उन्होंने बताया कि मांस के लिए उपयोग होने वाले पशुओं में 12 महीनो में 1 बार एंटीबॉयोटिक्स अथवा एलोपैथी पद्दति से उपचार करने की अनुमति होती है। प्रजनन के काम आने वाले पशुओं में 12 महीनो में 2 बार एंटीबॉयोटिक्स अथवा एलोपैथी पद्दति से उपचार करने की अनुमति होती है। थनेला रोग के उपचार हेतु 12 महीनो में 2 बार एलोपैथी से उपचार करने की अनुमति होती है।
एंटीबॉयोटिक्स का उपयोग
एंटीबॉयोटिक्स का उपयोग केवल शल्य क्रिया, दुर्घटना अथवा उन परिस्थितियों में किया जा सकता है। जब दूसरी दवाईयाँ प्रभावहीन हो।
पशुधन की जैविक सुरक्षा
उन्होंने बताया कि ए-2 मिल्क के लिए नये पशुओं को ऐसे फ ार्म से खरीदना चाहिये। जहां पर बीमारियों की वर्तमान स्थिति का पता हो अथवा जिनके पास संक्रामक बीमारियों से मुक्तहोने का प्रमाण पत्र हो। नए पशुओं को बाड़े में शामिल करने से पहले 4 हफ्तों तक अलग रखना चाहिये। अलग रखने के दौरान सभी गायों के थनों को थनैला रोग अथवा दूसरे रोगों को जांच लेना चाहिये। बछड़ों को जैविक दूध लगभग 3 माह की उम्र तक देना चाहिए। पशु आहार में आनुवांशिक अभियांत्रिकी से तैयार जीवाणु, प्रतिजैविक (एंटीबायोटिक), दूसरी दवा, हार्मोन्स और वृद्धि कारक तत्व आदि का प्रयोग नहीं होना चाहिये। अगर चारा, घर में उत्पादित हो तो उसके पोषक तत्वों में क्या कमी है। इसका पता होना चाहिये, खासतौर से जहां मिट्टी में पोषक तत्व कम पाये जाते हो। चारे और खून में पोषक तत्वों की कमी का प्रयोगशाला में पता करके ही उपचार लेना चाहिये। इन पोषक तत्वों की पूर्ति इंजेक्शन, गोली अथवा खनिज तत्वों की ईंट के द्वारा कर सकते है।